19. यथास्मै रोचते विश्वम
रामविलास शर्मा (सन् 1912-2000)
जीवन-परिचय
जन्म- रामविलास शर्मा का जन्म उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले
के ऊँचगाँव-सानी गाँव में हुआ था।
शिक्षा- लखनऊ विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए.
तथा पीएच. डी. की उपाधि प्राप्त की।
कैरियर- पीएच. डी. करने के उपरांत उन्होंने लखनऊ
विश्वविद्यालय में ही कुछ समय तक अंग्रेज़ी विभाग में अध्यापन कार्य किया। सन्
1943 से 1971 तक वे आगरा के बलवंत राजपूत कालेज में अंग्रेजी के प्राध्यापक रहे।
1971 के बाद कुछ समय तक वे आगरा के ही के. एम. मुंशी विद्यापीठ के निदेशक रहे।
जीवन के आखिरी वर्षों में वे दिल्ली में रहकर साहित्य समाज और इतिहास से संबंधित
चिंतन और लेखन करते रहे और यहीं उनका देहावसान हुआ।
रामविलास शर्मा आलोचक, भाषाशास्त्री, समाजचिंतक और
इतिहासवेत्ता रहे हैं।
साहित्यिक-परिचय
I. साहित्य के क्षेत्र में उन्होंने कवि और आलोचक के रूप
में पदार्पण किया। उनकी कुछ कविताएँ अज्ञेय द्वारा संपादित तार सप्तक में संकलित
हैं।
हिंदी की प्रगतिशील आलोचना को सुव्यवस्थित करने और उसे नयी
दिशा देने का महत्त्वपूर्ण काम उन्होंने किया।
॥. उनके साहित्य-चिंतन के केंद्र में भारतीय समाज का
जनजीवन, उसकी समस्याएँ और उसकी आकांक्षाएँ रही हैं। उन्होंने वाल्मीकि, कालिदास और
भवभूति के काव्य का नया मूल्यांकन और तुलसीदास के महत्त्व का विवेचन भी किया है।
॥I. रामविलास शर्मा ने आधुनिक हिंदी साहित्य का विवेचन और
मूल्यांकन करते हुए हिंदी की प्रगतिशील आलोचना का मार्गदर्शन किया।
IV. अपने जीवन के आखिरी दिनों में वे भारतीय समाज, संस्कृति
और इतिहास की समस्याओं पर गंभीर चिंतन और लेखन करते हुए वर्तमान भारतीय समाज की
समस्याओं को समझने के लिए, अतीत की विवेक यात्रा करते रहे।
V. महत्त्वपूर्ण विचारक और आलोचक के साथ-साथ रामविलास जी एक
सफल निबंधकार भी हैं। उनके अधिकांश निबंध विराम चिह्न नाम की पुस्तक में संगृहीत
हैं। उन्होंने विचारप्रधान और व्यक्ति व्यंजक निबंधों की रचना की है।
VI. प्रायः उनके निबंधों में विचार और भाषा के स्तर पर एक रचनाकार
की जीवंतता और सहृदयता मिलती है। स्पष्ट कथन, विचार की गंभीरता और भाषा की सहजता
उनकी निबंध - शैली की प्रमुख विशेषताएँ हैं।
VII. पुरस्कार निराला की साहित्य साधना
पुस्तक पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ था।
अन्य प्रतिष्ठित पुरस्कारों में सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार, उत्तर प्रदेश सरकार का भारत - भारती
पुरस्कार, व्यास सम्मान और हिंदी अकादमी दिल्ली का शलाका सम्मान उल्लेखनीय है।
पुरस्कारों के प्रसंग में शर्मा जी के आचरण
की एक बात महत्त्वपूर्ण है कि वे पुरस्कारों के माध्यम से
प्राप्त होने वाले सम्मान को तो स्वीकार करते थे लेकिन पुरस्कार की राशि को लोकहित में व्यय करने के
लिए लौटा देते थे। उनकी इच्छा थी कि यह राशि जनता को शिक्षित करने के लिए खर्च की जाए।
VIII. उल्लेखनीय कृतियाँ -
भारतेंदु और उनका युग
महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण
प्रेमचंद और उनका युग
निराला की साहित्य साधना (तीन खंड)
भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिंदी (तीन खंड)
भाषा और समाज
भारत में अंग्रेज़ी राज और मार्क्सवाद
इतिहास दर्शन
भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश
पाठ का सार
यथास्मै रोचते विश्वम् नामक निबंध उनके निबंध संग्रह 'विराम
चिह्न' से लिया गया है। इसमें उन्होंने कवि की तुलना प्रजापति से करते हुए उसे
उसके कर्म के प्रति सचेत किया है। लेखक के अनुसार साहित्य जहाँ एक ओर मनुष्य को
मानसिक विश्रांति प्रदान करता है वहीं उसे उन्नति के मार्ग पर अग्रसर होने की प्रेरणा
भी देता है। सामाजिक प्रतिबद्धता साहित्य की कसौटी है। पंद्रहवीं शताब्दी से आज तक
के साहित्य के अध्ययन-मूल्यांकन के लिए रामविलास जी ने इसी जनवादी साहित्य चेतना
को मान्यता दी है।
साझा प्रश्न उत्तर
प्रश्न 1. लेखक ने कवि की तुलना प्रजापति से
क्यों की है?
उत्तर-प्रजापति ब्रह्मा सृष्टि का निर्माण करते हैं। कवि
अपनी काव्य-सृष्टि का निर्माण करता है। कवि को जैसा रुचता है वैसे ही वह अपनी रुचि
के अनुकूल संसार अपने काव्य जगत में बनाता है। अपने काव्य-जगत का निर्माता होने के
कारण ही उसको प्रजापति के समान बताया गया है।
प्रश्न 2. 'साहित्य समाज का दर्पण है' इस प्रचलित धारणा के
विरोध में लेखक ने क्या तर्क दिए हैं?
उत्तर-कवि का काम यथार्थ जीवन को प्रतिबिंबित करना मात्र होता तो वह प्रजापति का दर्जा न
पाता। प्रजापति ने जो संसार बनाया उससे असन्तुष्ट होकर ही कवि नया संसार (समाज)
रचता है। इससे यह सिद्ध होता है कि साहित्य समाज का दर्पण नहीं है। उसमें यथार्थ
का ही नहीं आदर्श का भी चित्रण होता है। ट्रेजेडी नाटक में मनुष्य जैसे होते हैं
उससे बढ़कर दिखाए जाते हैं अतः साहित्य को समाज का दर्पण कहना ठीक नहीं है। कवि
अपनी रुचि के अनुकूल संसार को परिवर्तित करता है अर्थात् वह यथार्थ से कुछ अलग
(आदर्शोन्मुखी यथार्थ का) चित्रण साहित्य में करना पसंद करता है।
प्रश्न 3. दुर्लभ गुणों को एक ही पात्र में
दिखाने के पीछे कवि का क्या उद्देश्य है? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
उत्तर -कभी-कभी कवि संसार के दुर्लभ गुणों को एक ही पात्र
में समाविष्ट कर उसके चरित्र को आदर्श बनाकर लोगों के सामने पेश करता है। ऐसा करके
वह प्रजापति की तरह नयी सृष्टि करता है न कि समाज को दर्पण में प्रतिबिंबित करता
है। राम में सभी दुर्लभ गुण एक साथ विद्यमान हैं। वे चरित्रवान, शूरवीर,
दृढ़प्रतिज्ञ, सत्यवादी, कृतज्ञ, दयावान, विद्वान, समर्थ और प्रियदर्शन हैं। ऐसा
चरित्र गढ़कर कवि हमारे समक्ष आदर्श महामानव का स्वरूप प्रस्तुत करता है।
प्रश्न 4. 'साहित्य थके हुए मनुष्य के लिए
विश्रांति ही नहीं है, वह उसे आगे बढ़ने के लिए उत्साहित भी करता है' स्पष्ट कीजिए।
उत्तर - साहित्य का उद्देश्य केवल थके हुए मन का थकान दूर
करना ही नहीं है अपितु वह निराश व्यक्ति को उत्साहित कर उसके मन में आशा का संचार
करता है। वह कायरों को ललकारता हुआ उन्हें समरभूमि में उतरकर जान की परवाह न करते
हुए जूझने का हौसला देता है। साहित्य-मनुष्य के हताश मन में आशा का संचार करता है,
उसे नयी शक्ति देता है। जीवन में नया प्रकाश देने का काम साहित्य का है।
प्रश्न 5. 'मानव सम्बन्धों से परे साहित्य
नहीं है' कथन की समीक्षा कीजिए।
उत्तर - साहित्य में मानव समाज और मानव सम्बन्धों को ही
विषय-वस्तु बनाया जाता है। मानव सम्बन्धों की परिधि में ही साहित्य की रचना होती
है। यदि कवि विधाता (राम, कृष्ण) को साहित्य का विषय बनाता है तो उसे भी मानव रूप
में प्रस्तुत कर मानवीय सम्बन्धों में बाँधकर ही प्रस्तुत करता है। राम और कृष्ण
का मानवीय स्वरूप ही साहित्य का विषय है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का यह कहना
'राम तुम ईश्वर हो मानव नहीं हो क्या?' इसी बात को प्रकट करता है। साहित्य में
विविध मानवीय सम्बन्ध अपने गुण-दोष के साथ अभिव्यक्त होते हैं। जब उसे मानव-सम्बन्धों
में दरार आती दिखती है तो उसके अन्तर्मन को पीड़ा होती है और वह इन्हीं सम्बन्धों
को अपनी रचनाओं का विषय बना लेता है।
प्रश्न 6. पन्द्रहवीं-सोलहवीं सदी में हिन्दी
साहित्य ने मानव जीवन के विकास में क्या भूमिका निभाई?
उत्तर -पन्द्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी के हिन्दी
साहित्य ने मानव जीवन की मुक्ति के लिए वर्ण और धर्म के
सीकचों पर प्रहार किए। भक्त कवियों ने पीड़ित जनता के मर्म को स्पर्श कर उसे नए
जीवन के लिए संगठित किया, संघर्ष के लिए आमंत्रित किया और आशा प्रदान की। तत्कालीन
साहित्य ने उसे धर्म और जाति के भेदों से मुक्त कर उसके सामने सच्ची मानवता का आदर्श
प्रस्तुत किया।
प्रश्न 7. साहित्य के पांचजन्य' से लेखक का
क्या तात्पर्य है? 'साहित्य का पांचजन्य' मनुष्य को क्या प्रेरणा देता है?
उत्तर - 'पांचजन्य' श्रीकृष्ण के शंख का नाम है। जब
श्रीकृष्ण शंखनाद करते थे तो पाण्डवों की सेना उत्साह में भरकर युद्ध के लिए तत्पर
हो जाती थी। 'साहित्य के पांचजन्य' का अभिप्राय है प्रेरणाप्रद साहित्य जो लोगों
को भाग्य भरोसे नहीं बैठने देता है और उद्यम करने की प्रेरणा देता है। साहित्य का
यह पांचजन्य मनुष्य को बुराई के विरुद्ध लड़ने के लिए प्रेरित करता है।
प्रश्न 8. साहित्यकार के लिए स्रष्टा और
द्रष्टा होना अत्यन्त अनिवार्य है क्यों और कैसे?
उत्तर : स्रष्टा का अर्थ है-सृष्टि करने वाला और द्रष्टा का
अर्थ है- (भविष्य को) देखने की शक्ति रखने वाला। साहित्यकार को दोनों भूमिकाओं का
निर्वाह करना पड़ता है। वह ऐसे साहित्य की सृष्टि करता है जो मानव के लिए
कल्याणकारी हो, उसे रूढ़िवादिता और पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त करे, उसमें आशा
और उत्साह का संचार करे और अपनी समस्याओं से जूझने की ताकत पैदा करे। साहित्यकार
की दृष्टि भविष्योन्मुखी होती है और वह अच्छे भविष्य का चित्र अपनी रचनाओं में
उतारता है इस प्रकार वह स्रष्टा भी होता है और द्रष्टा भी।
प्रश्न 9. 'कवि पुरोहित' के रूप में
साहित्यकार की भूमिका स्पष्ट कीजिए।
उत्तर - पुरोहित की भूमिका अपने यजमान के धार्मिक एवं
लोककल्याणकारी कार्यकलापों को सम्पन्न कराने की है। वह उसका दिशा निर्देश करता है।
इसी प्रकार कवि भी समाज का दिशा निर्देशक होता है। उसे बताता है कि क्या करना
चाहिए और कैसे करना चाहिए। इसीलिए लेखक ने कवि की तुलना पुरोहित (जन-कल्याण की
भावना से पूजा-पाठ कराने वाला पण्डित) से की है। 'कवि-पुरोहित' निश्चय ही
लोकमंगलकारी क्रियाकलापों का विधान करता है।
प्रश्न 10. सप्रसंग व्याख्या कीजिए
(क) 'कवि की यह सृष्टि निराधार नहीं होती। हम उसमें अपनी
ज्यों की त्यों आकृति भले ही न देखें पर ऐसी आकृति जरूर देखते हैं, जैसी हमें
प्रिय है, जैसी आकृति हम बनाना चाहते हैं'।
उत्तरः प्रसंग प्रस्तुत पंक्तियाँ रामविलास शर्मा
द्वारा लिखित निबन्ध 'यशास्मै रोचते विश्वं' से ली गई है। प्रस्तुत पंक्ति में कवि
सृष्टि के विषय में अपने विचार व्यक्त करता है।
व्याख्या-
कवि द्वारा रचित सृष्टि सिर्फ कल्पना नहीं होती है। कवि वही लिखता है, जो देखता
तथा समझता है। उसके पात्र पूरी तरह भले ही हमें अपने आसपास दिखाई नहीं दे परंतु
हमें उन पात्रों में ऐसे गुण मिल जाएँगे जो हमें सुख प्रदान करते है। ऐसे पात्र जो
हमें प्रिय है। ऐसी सृष्टि की परछाई कवि के रचनाओं में दिखती है जिसकी हम कल्पना
करते हैं।
भाव यह है कि एक ऐसी रचना है कि जिससे पाठक ऐसा महसूस करता
है मानो यह ऐसे लिखा गया हो जैसे कि यह उसके जीवन के उद्देश्य से लिखा गया हो। वह उनकी
समस्याओं के प्रति है और उसमें व्याप्त समाधान उनके जीवन में व्याप्त समस्याओं का
समाधान दे रहे हैं।
(ख) 'प्रजापति-कवि गम्भीर यथार्थवादी होता है, ऐसा यथार्थवादी
जिसके पाँव वर्तमान की धरती पर हैं और आँखें भविष्य के क्षितिज पर लगी हुई हैं।'
उत्तरः प्रसंग प्रस्तुत पंक्तियाँ रामविलास शर्मा
द्वारा रचित निबन्ध 'यशास्मै रोचते विश्वं' से ली गई है। प्रस्तुत पंक्ति में कवि
के गुणों के विषय में बताया गया है।
व्याख्या-
लेखक कहते है की सृष्टि की रचना करने वाले कवि गम्भीर यथार्थवादी होते हैं।
इस प्रकार के साहित्यकार की विशेषता यह होती है कि वे सत्य
को यथावस्था लिखते है। वे वर्तमान पर पैर जमाये भविष्य की रचनाएँ करते हैं। उनकी
रचनाएँ सत्य से परे नहीं होती।
(ग) इसके सामने निरुद्देश्य कला, विकृत काम-वासनाएँ, अहंकार
और व्यक्तिवाद, निराशा और पराजय के 'सिद्धान्त' वैसे ही नहीं ठहरते जैसे सूर्य के
सामने अन्धकार।'
उत्तरः प्रसंग प्रस्तुत पंक्तियाँ रामविलास शर्मा
द्वारा रचित निबन्ध 'यशास्मै रोचते 'विश्वं' से ली गई है। प्रस्तुत पंक्ति में कवि साहित्य के
विषय में अपने विचार व्यक्त करता है।
व्याख्या-
लेखक साहित्य की विशेषताओं का वर्णन करते हुए कहते है कि साहित्य सिर्फ मनोरंजन का
साधन नहीं है। यह सदैव मनुष्य को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है। हमारे साहित्य
का गौरवशाली इतिहास इस बात का प्रमाण है। हमारे साहित्य में काम वैष्णो, व्यक्ति
विशेष को अधिक महत्व, तथा अहंकार इत्यादि के लिए कोई स्थान नहीं है बल्कि
साहित्य के अध्ययन से मनुष्य के अन्दर से ये सब ऐसे दूर हो
जाते है जैसे सूर्य की रौशनी से अँधेरा। -
अतिलघुत्तरात्मक प्रश्न
प्रश्न 1. 'यथास्मै
रोचते विश्वम्' नामक निबन्ध के लेखक कौन हैं?
उत्तर : 'यथास्मै रोचते विश्वम्' नामक निबन्ध के लेखक डॉ.
रामविलास शर्मा हैं।
प्रश्न 2. लेखक ने
कवि की तुलना किससे की है?
उत्तर : लेखक ने कवि की तुलना प्रजापति से की है।
प्रश्न 3. कवि
अपनी कविता में संसार की रचना कैसे करता है?
उत्तर : कवि अपनी कविता में संसार की रचना अपने मन के
अनुकूल करता है।
प्रश्न 4. बंधन
तोड़कर नए समाज के निर्माण की दिशा में बढने वालों को श्रेष्ठ कवि क्या देता है?
उत्तर : बंधन तोड़कर नए समाज के निर्माण की दिशा में बढ़ने
वालों को श्रेष्ठ कवि नई शक्ति देता है।
प्रश्न 5. कवि का
उत्तरदायित्व कब पूरा होता है?
उत्तर : बन्धन मुक्त होकर आगे बढ़ने के लिए प्रयत्नशील
लोगों का मार्गदर्शक बनने पर ही कवि का उत्तरदायित्व पूरा होता है।
प्रश्न 6. अफलातून
ने संसार को क्या कहा था?
उत्तर : अफलातून ने संसार को असल की नकल बताकर कला को जीवन
की नकल कहा है।
प्रश्न 7. अरस्तू
ने मनुष्य के सम्बन्ध में क्या कहा था?
उत्तर : अरस्तू ने कहा है कि जैसे मनुष्य को उसकी सीमा से
बढ़कर दिखने पर नकल- नवीस कला का खंडन हो जाता है।
प्रश्न 8. यूनानी
विद्वानों के बारे में क्या कहा गया है?
उत्तर : यूनानी विद्वानों के बारे में कहा जाता है कि वे
कला को जीवन की नकल समझते थे।
प्रश्न 9. लेखक के
अनुसार प्रजापति कौन होता है?
उत्तर : लेखक प्रजापति को सृष्टि का रचनाकर्ता मानते हैं।
प्रश्न 10. 'हैमलेट'का
लेखक कौन था?
उत्तर : हैमलेट के लेखक का नाम शेक्सपियर था।
प्रश्न 11. 17वीं
और 20वीं सदी के प्रमुख कवियों का नाम लिखिए।
उत्तर : 17वीं और 20वीं सदी के प्रमुख कवि रवींद्रनाथ,
भारतेंदु, वीरेश लिंगम्, तमिल भारती, मलयाली वल्लतोल आदि थे।
प्रश्न 12. कवि
कैसे अपने रुचि के अनुसार विश्व को परिवर्तित करता है?
उत्तर : कवि अपनी रुचि के अनुसार विश्व
को परिवर्तित करने हेतु विश्व को बताता है कि उसमें इतना
असंतोष क्यों है? वह यह भी बताता है कि विश्व में व्याप्त कुसंगतियाँ क्या हैं।
ताकि लोग अपने समाज को ढंग से समझ पायें।
प्रश्न 13. लेखक के
खींचे गये चित्र समाज की व्यवस्था से मेल खाते हैं। कैसे?
उत्तर : लेखक जो साहित्य लिखता है, वह समाज में अपनी आँखों द्वारा देखी हुई कुसंगतियों या
तथ्यों के आधार पर लिखता है। इसलिए लेखक का साहित्य समाज के भावों से मेल खाता है।
प्रश्न 14. साहित्य
को कैसा होना चाहिए?
उत्तर : साहित्य को समाज का दर्पण होने
के साथ-साथ मानव सुधार के लेखों से भरा होना चाहिए। साहित्य
सम्बन्धों, कुरीतियों, असंगतियों के खिलाफ एक मुहिम से भरा होना चाहिए, जिसमें
समाज सुधार का भाव भरा हुआ हो।
निबन्धात्मक प्रश्न -
प्रश्न 1. साहित्य की समाज में क्या भूमिका है? 'कवि स्रष्टा ही नहीं
द्रष्टा भी होता है' इस कथन का अभिप्राय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर : साहित्य समाज को बदलने में प्रभावी भूमिका का
निर्वाह करता है। सच्चा कवि केवल स्रष्टा (रचयिता) ही नहीं होता अपितु भविष्य
द्रष्टा भी होता है। उसके पैर जमीन पर रहते हैं पर आँखें आकाश की ओर रहती हैं।
हमारे लिए क्या हितकर है और क्या अहितकर यह कवि ही भली-भाँति जानता है। साहित्य की
युगांतरकारी भूमिका होती है। कवि यह भलीभाँति जानता है और उसी के अनुरूप जनता को
प्रेरित करता है। लेखक के मत से साहित्य समाज का दर्पण ही नहीं होता। साहित्य
लोगों को समरभूमि में उतरने की प्रेरणा देता है। हताश और निराश व्यक्ति के मन में
आशा, उत्साह का संचार साहित्य ही करता है। साहित्य समाज के दोषों के प्रति लोगों
को जागरूक करता है तथा उनसे मुक्त होने की प्रेरणा देता है।
प्रश्न 2. आदर्श
पात्र और उनके गुणों को अपनी रचना में संग्रहीत करने के पीछे कवि का चेष्टा क्या
होती है?
उत्तर : दुर्लभ गुणों का समावेश रखने वाला एक ही व्यक्ति
हो, अक्सर ऐसा नहीं होता। इसलिए ऐसा व्यक्ति ढूँढ़ने से भी नहीं मिलता। मगर कवि के
अंदर ऐसी क्षमता कूट-कूटकर भरी होती है कि दुर्लभ गुणों से युक्त पात्र का निर्माण
कर सके। यह पात्र मात्र मनोरंजन के लिए नहीं होता। इसके पीछे खास उद्देश्य होता
है। जैसे दिशाहीन मनुष्य को दिशा दिखाना। कुछ गुण तो मनुष्य साथ लेकर ही जन्म लेता
है।
परन्तु कुछ गुणों का समावेश उसके परिवेश या समाज की शिक्षा
से होता है। लेकिन कवि ऐसे पात्रों की रचना करता है, जिसमें दुर्लभ गुणों का
समावेश होता है तो उसका उद्देश्य समाज के आगे आदर्श पात्र रखना होता है। यह समाज
में लोगों का आदर्श बन जाता है। यही आदर्श लोगों में दुर्लभ गुणों का विकास कर
सकता है। जैसे राम की कल्पना का उद्देश्य हर घर में राम जैसे लक्षण और गुण रखने
वाली संतान, पति, मित्र और मनुष्य से है। कवि इस प्रकार के आदर्श पात्र वाले
व्यक्ति की रचना कर, समाज में व्याप्त दुर्गुणों को समाप्त कर, आदर्श स्थापित करने
का प्रयास करता है।
प्रश्न 3. साहित्य
मनुष्य को साहस देने के साथ-साथ उत्साहित भी रखता है। कैसे?
उत्तर: साहित्य हतोत्साहित मनुष्यों को आगे बढ़ने के लिए
उत्साहित करता है। उसका काम समाज को नई दिशा और थके-हारे मनुष्य को नई ऊँचाई देने
के अलावा मन को शांति प्रदान करना भी है। साहित्य से इंसान की उदासी, प्रसन्नता
में बदल जाती है, सड़ी- गली परंपराएँ, नई परंपराओं के द्वारा बदल दी जाती हैं और
मनुष्य में पुनः उत्साह का संचार होता है। यह कार्य ही मनुष्य को जीने की अनेक
राहें उपलब्ध करवाता है।
साहित्य मार्गदर्शक बनकर जीवन की सभी विसंगति को भुलाने और
आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है। साहित्य में मनुष्य को अपने जीवन की झलक तो
मिलती ही है साथ ही साथ जीवन में आने वाली मुसीबतों से निकलने के लिए प्रेरणा भी
मिलती है। इन्हीं सभी करणों से साहित्य मनुष्य को प्रेरणा, उद्देश्य, मार्ग, नया
उत्साह भी देने में सक्षम है, एक लेखक या कवि की लिखी रचना या उसके द्वारा रचित
साहित्य को लोगों द्वारा बड़े चाव से पढ़ा जाता है और आगे भी पढ़ा जाता रहेगा।
प्रश्न 4. साहित्य
मानवीय संबंधों से जुड़ा हुआ है। कैसे?
उत्तर : मानव ही एक कवि या लेखक होता है। वह मानव संबंधों
या समाज से स्वयं घुला-मिला होता है। आज तक कोई ऐसा साहित्यकार नहीं हुआ, जो मानव
संबंधों से जुड़ा न हो। असल में मनुष्य के जीवन की नींव ही मानव संबंध है। कोई
किसी का माता- पिता है, तो कोई मित्र, कोई भाई-बहन, पुत्र-पुत्री इत्यादि मिलकर
मानव संबंधों या मानवीय संबंधों की एक श्रृंखला बनाते हैं। इस कारण जब कोई लेखक या
कवि साहित्य का निर्माण करता है, तो साहित्य का समाज से जुड़ाव निश्चित है। एक कवि
या लेखक की रचना में संबंधों का उल्लेख तभी मिलता है, जब खुद लेखक उस संबंध से आहत
हो या प्रसन्न हुआ हो। इससे उन संबंधों की छाया उसके साहित्य में स्वतः ही पड़
जाती है। इस प्रकार साहित्य के माध्यम से इन रिश्तों के बारे में लेखक बारीक और
सुंदर मूल्यांकन कर पाता है। इसलिए कवि या लेखक संतोष तथा असंतोष के आधार पर मानव
संबंधों का उल्लेख करते हैं। इसलिए किसी लेखकं के लिए साहित्य का सृजन करते वक्त
इंसानों के विभिन्न पहलुओं के प्रति चेतना का होना आवश्यक हो जाता है। इसी प्रकार
साहित्य का सम्बन्ध मानव हित और उसकी जरूरतों से जुड़ता चला जाता है।
साहित्यिक परिचय का प्रश्न
प्रश्न : डॉ.
रामविलास शर्मा का साहित्यिक परिचय लिखिए।
उत्तर : साहित्यिक परिचय डॉ. शर्मा के बहुमुखी व्यक्तित्व
के अनुरूप ही उनकी भाषा के उनकी रचनाओं के अनुसार अनेक रूप हैं। उनकी भाषा में
संस्कृत के तत्सम शब्दों की प्रधानता है किन्तु साथ ही उसमें आवश्यकता होने पर
अंग्रेजी, उर्दू आदि भाषाओं के शब्दों को भी स्थान मिला है। डॉ. शर्मा ने अनेक
शैलियों का प्रयोग अपनी रचनाओं में किया है। वर्णनात्मक, विचात्मक, विवरणात्मक,
विवेचनात्मक शैलियों के साथ आपने समीक्षात्मक शैली को भी अपनाया है। यत्र-तत्र
व्यंग्य शैली तथा उद्धरण शैली भी पाई जाती है।
कृतियाँ :
निबन्ध संग्रह 'विराम चिह्न। समीक्षा- भारतेन्दु और उनका
युग, प्रेमचन्द और उनका युग, निराला की साहित्य-साधना (तीन खण्ड) इत्यादि।
भाषा-विज्ञान भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी (तीन खण्ड), भाषा और समाज
आदि। इतिहास और संस्कृति-भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद, भारतीय संस्कृति और
हिन्दी प्रदेश इत्यादि।
सम्मान एवं पुरस्कार-साहित्य अकादमी पुरस्कार (निराला की
साहित्य साधना के लिए), भारत-भारती पुरस्कार, सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार, व्यास
सम्मान, हिन्दी अकादमी दिल्ली का शलाका सम्मान।
यथास्मै रोचते विश्वम् Summary in Hindi
लेखक परिचय :
जन्म-सन् 1912 ई.। स्थान-ऊँचगाँव-सानी ग्राम। जिला-उन्नाव
(उ.प्र.)। शिक्षा लखनऊ विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में एम.ए., पी-एच.डी.,
शिक्षण लखनऊ विश्वविद्यालय तथा बलवन्त राजपूत कॉलेज, आगरा में अंग्रेजी के
प्राध्यापक तथा विभागाध्यक्ष (1943 से 1971), के. एम. मुंशी हिन्दी विद्यापीठ,
आगरा विश्वविद्यालय, आगरा के निदेशक। सेवामुक्ति के बाद दिल्ली में रहकर स्वतंत्र
लेखन। निधन-सन् 2000 ई.।
साहित्यिक परिचय डॉ. रामविलास शर्मा मार्क्सवादी विचारक,
समालोचक, भाषाशास्त्री, इतिहासवेत्ता तथा कवि थे। हिन्दी समालोचना को आपने नई दिशा
दी है। भारतीय समाज, जनजीवन तथा उसकी समस्यायें आपके चिन्तन का विषय रहे हैं। डॉ.
शर्मा एक कुशल निबन्धकार हैं।
भाषा डॉ. शर्मा के बहुमुखी व्यक्तित्व के अनुरूप ही उनकी
भाषा के उनकी रचनाओं के अनुसार अनेक रूप हैं। उनकी भाषा में संस्कृत के तत्सम
शब्दों की प्रधानता है किन्तु साथ ही उसमें आवश्यकता होने पर अंग्रेजी, उर्दू आदि
भाषाओं के शब्दों को भी स्थान मिला है।
शैली- डॉ. शर्मा ने अनेक शैलियों का प्रयोग अपनी रचनाओं में
किया है। वर्णनात्मक, विचारात्मक, विवरणात्मक, विवेचनात्मक शैलियों के साथ आपने
समीक्षात्म शैली को भी अपनाया है। यत्र-तत्र व्यंग्य शैली तथा उद्धरण शैली भी पाई
जाती है।
कृतियाँ - डॉ. शर्मा ने सौ से अधिक पुस्तकों की रचना की है।
उनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं
निबन्ध संग्रह विराम चिह्न। समीक्षा- भारतेन्दु और उनका
युग, प्रेमचन्द और उनका युग, निराला की साहित्य-साधना (तीन खण्ड) इत्यादि।
भाषा-विज्ञान भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी (तीन खण्ड); भाषा और समाज
आदि। इतिहास और संस्कृति- भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद, भारतीय संस्कृति
और हिन्दी प्रदेश इत्यादि।
सम्मान एवं पुरस्कार-साहित्य अकादमी पुरस्कार (निराला की
साहित्य साधना के लिए), भारत-भारती पुरस्कार, सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार, व्यास
सम्मान, हिन्दी अकादमी दिल्ली का शलाका सम्मान।
पाठ सारांश - 'यथास्मै रोचते विश्वम्' नामक निबन्ध डॉ.
रामविलास शर्मा के निबन्ध-संग्रह 'विराम चिह्न' में संकलित है। इसमें लेखक ने कवि
की तुलना प्रजापति ब्रह्मा से की है क्योंकि कवि अपने मन के अनुकूल संसार की रचना
अपनी कविता में करता है। लेखक साहित्य को समाज का दर्पण नहीं मानता। उसका कहना है
कि यदि ऐसा होता तो संसार को बदलने की बात ही न उठती। विधाता द्वारा निर्मित संसार
से असन्तुष्ट होकर उसे बदलने की बात कहने के कारण ही कवि प्रजापति का दर्जा पाता
है।
कवि यह भी बताता है कि वह संसार में किन गुणों को विकसित
करना चाहता है। कवि यथार्थवादी होता है। उसके पैर जमीन पर तथा आँखं आकाश पर टिकी
होती हैं। वह विश्रांति के साथ आगे बढ़ने की प्रेरणा भी देता है। ईश्वर को नायक
बनाकर वह उसे भी मानवीय स्वरूप प्रदान करता है। वह बंधन तोड़कर नये समाज के
निर्माण की दिशा में बढ़ने वालों को नई शक्ति देता है। सत्रहवीं और बीसवीं शताब्दी
के साहित्य ने अंग्रेजी राज और सामंती अवशेषों के विरुद्ध भारतीयों को लड़ने के
लिए प्रेरित किया है।
उन्हें समरभूमि में उतरने को तैयार किया है। भारतेन्दु
हरिश्चन्द्र, रवीन्द्रनाथ, सुब्रह्मण्यम भारती, वीरेश लिंगम आदि कवियों का साहित्य
इसका प्रमाण है। बंधन-मुक्त होकर आगे बढ़ने के लिए प्रयत्नशील लोगों का मार्गदर्शक
बनने पर ही कवि का उत्तरदायित्व पूरा होता है और उसका व्यक्तित्व निखरता है।
कठिन शब्दार्थ :
प्रजापति = ब्रह्मा जो सृष्टि (संसार) का निर्माण करते हैं।
यथास्मै रोचते विश्वं तथेदं परिवर्तते = जैसा (कवि को)
रुचता है विश्व को वह वैसा ही (अपनी रुचि के अनुसार) बदल देता है।
रुचता = अच्छा लगता।
प्रतिबिंबित = दर्पण में बनने वाली छाया को दिखाना।
प्रजापति का दर्जा = विधाता की समकक्षता
(बराबरी) ।
अफलातून = यूनान का दार्शनिक एवं विचारक प्लेटो।
असार = नाशवान।
ट्रेजेडी = दुखांत नाटक।
नकल नवीस = नकल करने वाले।
वाल्मीकि = संस्कृत के महाकाव्य रामायण के रचयिता।
बहवो = बहुत सारे।
दुर्लभाश्चैव = दुर्लभ।
त्वया = तुम्हारे द्वारा।
निराधार = जिसका कोई आधार न हो।
सुघर = सुघड़।
पार्श्व भाग = पीछे का हिस्सा।
वीर्यवान = शूरवीर (पौरुष युक्त) ।
दृढव्रत = दृढ़ संकल्प।
प्रियदर्शन = सुन्दर।
पार्श्वभूमि = पृष्ठभूमि।
यथार्थवादी = जैसा है वैसा ही दिखने वाला।
क्षितिज = जहाँ पृथ्वी और आकाश मिलते दिखाई पड़ते हैं।
विश्रांति = आराम।
विधाता = ईश्वर।
परिधि = घेरा।
हैमलेट = शेक्सपीयर का एक नाटक।
बहसंख्यक = अधिकांश।
पंख फड़फड़ाना = उड़ने को आतुर होना (मुक्ति के लिए इच्छुक)
।
प्रजापति रूप = विधाता रूप।
दृष्टा = देखने वाला।
नियामक = बनाने वाला।
क्षुब्ध = अशान्त (खिन्न)।
सींकचे = बन्धन।
विहग = पक्षी।
परों = पंखों।
अजेय अस्त्र = ऐसा हथियार जिसे जीता न जा सके।
मुक्ति = बंधन से छूटना।
सामंती पिजड़ा = राजदरबारों का संस्कृति रूपी बंधन।
ललद्यद = कश्मीरी कवयित्री।
चन्डीदास = बंगला भाषा के भक्त कवि।
तिरुवल्लुवर = तमिल भाषा के कवि।
जीर्ण = कमजोर, टूटा-फूटा।
रवीन्द्रनाथ = बंगलाभाषा के कवि (रवीन्द्रनाथ टैगोर)।
भारती = सुब्रह्मण्यम भारती (तमिल कवि)।
अवशेष = जो शेष बचा हो।
पराधीन = गुलाम।
मनोवृत्ति = मानसिकता।
पांचजन्य = शंख (कृष्ण के शंख का नाम) ।
समर भूमि = युद्धक्षेत्र।
पंख कतरना = शक्तिहीन करना।
पराभव = अवनति ।
क्लीबानां = कायरों (नपुंसकों)।
भरत मुनि = संस्कृत आचार्य (नाट्यशास्त्र के रचयिता) ।
निरुद्देश्य = उद्देश्य विहीन। विकृत बिगड़ी हुई।
व्यक्तिवाद = ऐसा सिद्धान्त जिसमें व्यक्ति को ही महत्त्व
मिला हो।
जीवन विहग = जीवनरूपी पक्षी।
तीलियाँ = छड़ें (लोहे की वे छड़ें जो पिंजड़े में लगी होती
हैं)।
दंभ = अहंकार।
पराभव = अवनति।
द्रष्टा = भविष्यद्रष्टा।
स्रष्टा = सर्जक ।
विकृतियाँ = बुराइयाँ।
युगांतरकारी = युगपरिवर्तन लाने वाली।
रोष = क्रोध।
महत्त्वपूर्ण व्याख्याएँ
1. प्रजापति से कवि की तुलना करते हुए किसी ने बहुत ठीक
लिखा था-"यथास्मै रोचते विश्वं तथेदं परिवर्तते। कवि को जैसे रुचता है वैसे
ही संसार को बदल देता है। यदि साहित्य समाज का दर्पण होता तो संसार को बदलने की
बात न उठती। कवि का काम यथार्थ जीवन को प्रतिबिंबित करना ही होता तो वह प्रजापति
का दर्जा न पाता। वास्तव में प्रजापति ने जो समाज बनाया है, उससे असन्तुष्ट होकर
नया समाज बनाना कविता का जन्मसिद्ध अधिकार है।
प्रसंग -
प्रस्तुत पंक्तियाँ डॉ. रामविलास शर्मा के निबन्ध 'यथास्मै रोचते विश्वम्' से ली
गई हैं। यह निबन्ध हमारी पाठ्य पुस्तक 'अंतरा भाग-2' में संकलित है। पंक्तियों में
लेखक ने कवि की तुलना प्रज्ञापति (विधाता, ब्रह्मा) से किये जाने को सही माना है,
क्योंकि वास्तव में विधाता के बनाए संसार से असन्तुष्ट होकर ही वह अपने मनोनुकूल
संसार की रचना काव्यजगत् में कर लेता है।
व्याख्या -
किसी संस्कृत विद्वान ने प्रजापति विधाता की तुलना कवि से की है। उसका कथन ठीक ही
है क्योंकि कवि को जैसा संसार रुचता है वह उसे अपने काव्य में उसी रूप में बदल
देता है अर्थात् कवि को विधाता का बनाया संसार जब अच्छा नहीं लगता तो वह उसमें
अपनी इच्छा से ऐसे काव्य जगत् का निर्माण करता है जो उसके मनोनुकूल हो। कुछ लोग यह
कहते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। यह कथन सत्य नहीं है।
यदि यह कथन सत्य होता तो संसार को बदलने की बात ही न उठती।
कवि का काम केवल अपने यथार्थ जीवन को अपने काव्य में प्रतिबिम्बित करना ही होता तो
वह प्रजापति (विधाता) का दर्जा भी न पाता। वास्तविकता तो यह है कि प्रजापति ने जो
समाज बनाया है वह जब कवि को सन्तुष्ट न कर पाया तब उसने अपना नया संसार (समाज)
कविता में रच लिया जो उसका जन्मसिद्ध अधिकार रहा है।
विशेष :
I. कवि की तुलना प्रजापति से इसलिए की गई है क्योंकि दोनों
ही निर्माण करते हैं।
॥. कवि केवल यथार्थ को प्रस्तुत नहीं करता वह आदर्श को भी
दिखाता है अर्थात् 'क्या होना चाहिए' इस ओर भी अपनी रचनाओं में संकेत करता है।
III. कवि जब विधाता के द्वारा बनाए समाज से असन्तुष्ट होता
है तभी अपने मनोनुकूल समाज की रचना काव्य जगत् में करता है।
IV. विचार प्रधान शैली का प्रयोग है। भाषा सहज,
संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली है।
2. कवि की यह सृष्टि निराधार नहीं होती। हम उसमें अपनी
ज्यों की त्यों आकति भले ही न देखें पर ऐसी आकति जरूर देखते हैं जैसी हमें प्रिय
है, जैसी आकृति हम बनाना चाहते हैं। जिन रेखाओं और रंगों से कवि चित्र बनाता है वे
उसके चारों ओर यथार्थ जीवन में बिखरे होते हैं और चमकीले रंग और सुघर रूप ही नहीं,
चित्र के पार्श्व भाग में काली छायाएँ भी वह यथार्थ जीवन से ही लेता है। राम के
साथ रावण का चित्र न खींचें तो
गुणवान, वीर्यवान, कृतज्ञ, सत्यवाक्य, दृढ़व्रत, चरित्रवान, दयावान, विद्वान,
समर्थ और प्रियदर्शन नायक का चरित्र फीका हो जाए और वास्तव में उसके गुणों के
प्रकाशित होने का अवसर ही न आए।
प्रसंग -
प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य- पुस्तक 'अन्तरा भाग-2' में संकलित निबन्ध
'यथास्मै रोचते विश्वम्' से अवतरित है। इस निबन्ध के लेखक डॉ. रामविलास शर्मा हैं।
कवि की तुलना प्रजापति से की गई है। वह जिस संसार की सृष्टि करता है उसमें यथार्थ
का पुट होते हुए भी वह आदर्शोन्मुख होती है।
व्याख्या
लेखक की मान्यता है कि कवि अपनी रचना में जिस प्रकार की सृष्टि करता है वह निराधार
नहीं होती। भले ही हमें किसी काव्यकृति में सृष्टि का यथार्थ रूप देखने को न मिले
पर उसमें हमें वह रूप देखने को अवश्य मिलेगा जो हम आदर्श रूप में अपने मन में
संजोए हुए हैं और जिसे देखना चाहते हैं।
कवि इन चित्रों की रचना अपने आस-पास बिखरे यथार्थ जगत् से
ही ग्रहण करता है। जिस प्रकार कोई चित्र अपनी पृष्ठभूमि से ही उभरता है उसी प्रकार
कवि आदर्श चरित्र को उभारने के लिए खल पात्रों की सृष्टि पृष्ठभूमि में करता है।
राम की अच्छाई तभी उभर पाती है जब उसके समानान्तर रावण की दुष्टता का चित्र उभारा
जाए। राम के श्रेष्ठ गुण-रावण की दुष्टता के समक्ष ही पाठकों को प्रभावित कर पाते
हैं। यदि रावण की बुराई सामने न हो तो राम की अच्छाई का कोई महत्त्त्व ही न हो।
विशेष :
।. कवि की सृष्टि विधाता की यथार्थ सृष्टि से अलग होती है।
॥. भाषा सहज प्रवाहपूर्ण संस्कृतनिष्ठ हिन्दी है।
।।।. विवेचनात्मक शैली का प्रयोग है।
3. कवि अपनी रुचि के अनुसार जब विश्व को परिवर्तित करता है
तो यह भी बताता है कि विश्वं से उसे असंतोष क्यों है। वह यह भी बताता है कि विश्व
में उसे क्या रुचता है जिसे वह फलता-फूलता देखना चाहता है। उसके चित्र के भूमि की
गहरी काली रेखाएँ दोनों ही यथार्थ जीवन से उत्पन्न होते हैं। इसलिए प्रजापति-कवि
गम्भीर यथार्थवादी होता है, ऐसा यथार्थवादी जिसके पाँव वर्तमान की धरती पर हैं और
आँखें भविष्य के क्षितिज पर लगी हुई हैं। इसलिए मनुष्य साहित्य में अपने सुख-दुख
की बात ही नहीं सुनता, वह उसमें आशा का स्वर भी सुनता है। साहित्य थके हुए मनुष्य
के लिए विश्रांति ही नहीं है, वह उसे आगे बढ़ने के लिए उत्साहित भी करता है।
प्रसंग
प्रस्तुत पंक्तियाँ 'यथास्मै रोचते विश्वम्' नामक निबन्ध से ली गई हैं। इस निबन्ध
के लेखक डॉ. रामविलास शर्मा हैं और इसे हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा भाग 2' में
संकलित किया गया है। कवि केवल यथार्थ विश्व का चित्रण नहीं करता अपितु वह यथार्थ
से असंतुष्ट होकर ऐसे विश्व का चित्रण अपने काव्य में करता है जो उसकी रुचि के
अनुकूल है। कवि का यह चित्रणं आदर्शोन्मुखी होता है जिसके पैर वर्तमान की धरती पर
होते हैं पर आँखें भविष्य पर पर टिकी होती हैं।
व्याख्या : जब
कोई कवि अपनी काव्य सृष्टि में अपनी रुचि के अनुसार संसार रचता है और उसे यथार्थ
विश्व से अलग तथा परिवर्तित रूप में प्रस्तुत करता है तो इसका कारण भी बताता है कि
यथार्थ जगत् से वह असन्तुष्ट क्यों है? वह यह भी बताता है कि यथार्थ विश्व में उसे
क्या अच्छा लगता है और क्या गलत लगता है। जो उसे अच्छा लगता है उसे वह फलता-फूलता
देखना चाहता है।
कवि अपनी काव्य सृष्टि में संसार के उजले एवं काले (अर्थात्
अच्छे और बुरे) दोनों रूप प्रस्तुत करता है, क्योंकि बुराई के द्वारा ही वह अच्छाई
को उभारता है। वस्तुतः कवि ऐसा यथार्थवादी कलाकार होता है जिसके पैर वर्तमान की
धरती पर टिके होते हैं और दृष्टि भविष्य के क्षितिज पर टिकी होती है। कवि केवल
मानव के सुख-दुख का चित्रण ही नहीं करता अपितु भविष्य के आशावादी स्वर भी अपनी
रचना में प्रस्तुत करता है। साहित्य थके हुए व्यक्ति को शान्ति ही नहीं देता अपितु
आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित भी करता है। यही कवि की भूमिका है।
विशेष :
लेखक ने कवि को प्रजापति के समकक्ष माना है जो अपनी इच्छा
से संसार की सृष्टि करता है। कवि की अपनी सृष्टि अपनी रुचि के अनुसार होती है। वह
भविष्यद्रष्टा भी होता है और निराश लोगों के मन में आशा का संचार भी कर देता है।
यह यथार्थ ही नहीं आदर्श को भी दिखाता है। बुराई का महत्त्व अच्छाई को उजागर करने
में माना गया है। रावण का चित्रण राम के गुणों को उभारने के लिए जरूरी है। भाषा
सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण हिन्दी है। विवेचनात्मक शैली प्रयुक्त है।
4. मानव सम्बन्धों से परे साहित्य नहीं है। कवि जब विधाता
पर साहित्य रचता है, तब उसे भी मानव सम्बन्धों की परिधि में खींच लाता है। इन मानव
सम्बन्धों की दीवाल से ही हैमलेट की कवि सुलभ सहानुभूति टकराती है और शेक्सपीयर एक
महान ट्रेजडी की सृष्टि करता है। ऐसे समय जब समाज के बहुसंख्यक लोगों का जीवन इन
मानव-सम्बन्धों के पिंजड़े में पंख फड़फड़ाने लगे, सींकचे तोड़कर बाहर उड़ने के
लिए आतुर हो उठे, उस समय कवि का प्रजापत्ति रूप और भी स्पष्ट हो उठता है। वह समाज
के द्रष्टा और नियामक के मानव- विहग से क्षुब्ध और रुद्धस्वर को वाणी देता है। वह
मुक्त गगन के गीत गाकर उस विहग के परों में नयी शक्ति भर देता है। साहित्य जीवन का
प्रतिबिंबित रहकर उसे समेटने, संगठित करने और उसे परिवर्तन करने का अजेय अस्त्र बन
जाता है।
संदर्भ :
प्रस्तुत पंक्तियाँ डॉ. रामविलास शर्मा के निबन्ध 'यथास्मै रोचते विश्वम्' से ली
गई हैं जिन्हें हमारी पाठ्य-पुस्तक 'अन्तरा भाग- 2' में संकलित किया गया है।
प्रसंग :
लेखक का विचार है कि कवि दूसरा प्रजापति है। समाज के अधिकांश लोग जब मानव
सम्बन्धों के पिंजड़े में बन्द होकर मुक्ति के लिए पंख फड़फड़ाते हैं तब कवि उनके
क्षुब्ध और रुद्ध स्वर को वाणी देकर अपनी प्रजापति की भूमिका का निर्वाह करता है।।
व्याख्या:
साहित्य मानव सम्बन्धों को व्यक्त करता है। इन सम्बन्धों से परे साहित्य नहीं है।
साहित्य में मानव-सम्बन्धों को ही विषय बनाया जाता है। कवि जब विधाता अर्थात् राम,
कृष्ण आदि को अपना विषय बनाता है तो वह उनके मानवीय स्वरूप का ही वर्णन करता है,
मानव रूप में उनके गुणों तथा चरित्र का चित्रण करता है। अंग्रेजी साहित्य के महान्
नाटककार शेक्सपीयर ने अपने दुखांत नाटक हैमलेट की रचना की है। यह एक श्रेष्ठ रचना
है। इस नाटक के पात्र हैमलेट के चरित्र में कवियों जैसी सहानुभूति का भाव है। मानव
सम्बन्धों की यही विशेषता 'हैमलेट' की श्रेष्ठता का कारण है।
जब समाज के अधिकतर लोगों का जीवन इन मानव-सम्बन्धों के
पिंजड़े में बन्द होकर मुक्ति के लिए पंख फड़फड़ाए और तमाम तरह की बाधाएँ तोड़कर
बाहर आने के लिए आतुर हो उठे उस समय कवि प्रजापति बनकर उसके क्षुब्ध और रुद्ध स्वर
को अपनी रचना में प्रकट करता है। समाज के लोगों का असन्तोष तत्कालीन कवि की वाणी
से व्यक्त होता है। सच्चे अर्थों में कवि अपने समकालीन समाज का द्रष्टा और नियामक
होता है। उसके द्वारा गाए गीत पिंजड़े में बन्द उस मानव-विहग के पंखों में सक्ति
का संचार कर देते हैं और वह विद्रोह के लिए तत्पर हो जाता है। वस्तुतः साहित्य
जीवन में प्रतिबिम्बित तो रहता है. साथ ही उसे समेटने, संगठित करने और परिवर्तित
करने का अचूक अस्त्र (साधन) भी बन जाता है।
विशेष :
कवि की भूमिका पर प्रकाश डाला गया है। साहित्य का उद्देश्य
क्या है इसे इन पंक्तियों में लेखक है। कवि समाज का द्रष्टा, नियामक और मार्गदर्शक
होता है। भाषा सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण हिन्दी है। शैली विचार-विवेचनात्मक है।
5. साहित्य का पांचजन्य समर भूमि में उदासीनता का राग नहीं
सुनाता। वह मनुष्य को भाग्य के आसरे बैठने और ले में पंख फड़फड़ाने की प्रेरणा
नहीं देता। इस तरह की प्रेरणा देने वालों के वह पंख कतर देता है। वह कायरों और अब
प्रेमियों को ललकारता हुआ एक बार उन्हें भी समरभूमि में उतरने के लिए बुलावा देता
है। कहा भी है. भनीबानां धाष्यंजननमुत्साहः शूरमानिनाम्। " भरतमुनि से लेकर
भारतेन्दु तक चली आती हुई हमारे साहित्य की यह शाली परम्परा है। इसके सामने
निरुद्देश्य कला, विकृत काम-वासनाएँ, अहंकार और व्यक्तिवाद, निराशा और जय के सिद्धान्त'
वैसे ही नहीं ठहरते जैसे सूर्य के सामने अन्धकार।
संदर्भ :
प्रस्तुत पंक्तियाँ डॉ. रामविलास शर्मा के निबन्ध 'यथास्मै रोचते विश्वम्' से ली
गई हैं। इस निबन्ध को हमारी पुस्तक 'अन्तरा भाग - 2' में संकलित किया गया है।
प्रसंग -
साहित्य आशा का संचार करता है, निराशा का नहीं। वह मानव को पुरुषार्थ के लिए
प्रेरित करता है। कायरों को समरांगण में उतरने की प्रेरणा देने के लिए वह ललकारता
है। भारतीय साहित्य में भरतमुनि से भारतेन्दु तक यही मशाली परम्परा रही है।
व्याख्या -
लेखक साहित्य को श्रीकृष्ण के शंख पांचजन्य जैसा बताता है। श्रीकृष्ण अपने शंखनाद
से पाण्डवों को युद्ध लाए जैसे प्रेरित कर देते थे, उनमें साहस, शूरता का संचार
करते थे, वही भूमिका साहित्य की है। साहित्यकार अपनी रचना समाज में व्याप्त
उदासीनता को दूर करता है, उनमें आशा का संचार करता है। वह लोगों को भाग्य के भरोसे
बैठे रहने की अपितु पुरुषार्थ करने की प्रेरणा देता है। कायरों को ललकारता हुआ
साहित्यकार उन्हें युद्धभूमि में अपनी, वीरता दिखाने गणा देता है।
कायर ही भाग्य भरोसे बैठते हैं। किन्तु शूरवीर तो उत्साह
में भरकर अपने अधिकार के लिए संघर्ष करते रुषार्थ करते हैं। भारतीय साहित्य में
आचार्य भरतमुनि से लेकर आधुनिक काल के जनक भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र तक साहित्य
में साहित्य की यही गौरवशाली परम्परा रही है। जो साहित्य लोगों के पौरुष को न जंगा
सके, वीर भावों को न कर सके वह किसी काम का नहीं। साहित्य का यही उद्देश्य है
जिसके सामने अन्य उद्देश्य (कला, कला के लिए, कला पारों के शमन के लिए या अहं को
व्यक्त करने के लिए आदि) कहीं नहीं ठहरते।
विशेष :
I. साहित्य के मूल उद्देश्य पर प्रकाश डाला गया है।
II. साहित्य भी पांचजन्य के समान बुराई के विरुद्ध संघर्ष
के लिए प्रेरित करता है।
III. भाषा सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण है। शैली
विचार-विवेचनात्मक है।
6. जापति की अपनी भूमिका भूलकर कवि दर्पण दिखाने वाला ही रह
जाता है। वह ऐसा नकलची बन जाता की अपनी कोई असलियत न हो। कवि का व्यक्तित्व पूरे
वेग से तभी निखरता है जब वह समर्थ रूप से परिवर्तन वाली जनता के आगे कवि पुरोहित
की तरह बढ़ता है। इसी परम्परा को अपनाने से हिन्दी साहित्य उन्नत और समता हमारे
जातीय सम्मान की रक्षा कर सकेगा।
संदर्भ :
प्रस्तुत पंक्तियाँ "यथास्मै रोचते विश्वम्' नामक निबन्ध से ली गई, हैं। डॉ.
रामविलास शर्मा का यह निबन्ध पाठ्य- पुस्तक 'अन्तरा भाग-2' में संकलित है।
व्याख्या - कवि
यदि अपनी भूमिका भूलकर केवल यथार्थ का चित्रण करने का कार्य करेगा तो उससे समाज का
कोई भला गा। कवि को पुरोहित बनकर समाज का दिशा निर्देशन करना होगा तभी हम अपने
जातीय सम्मान की रक्षा कर पाएँगे। ... याख्या-कवि को प्रजापति के समान बताया गया
है अर्थात् उसे अपनी इच्छा से अपने मनोनुकूल संसार की रचना का अधिकार अपनी काव्य
सृष्टि में होता है। उसकी यह भूमिका बहुत महान एवं गरिमापूर्ण है।
वह समाज को जैसः या चाहता है वैसा ही अपने साहित्य में
प्रस्तुत करता है। यदि वह ऐसा न करके केवल वही दिखाए जो समाज में यथाः। हो रहा है
तो वह एक नकलची बन जाएगा। कवि का कार्य है समाज को दिशा निर्देश देना, उसका नियामक
बनना जनता जो परिवर्तन चाहती है उसका नियामक कवि बनता है। पुरोहित की तरह आगे रहकर
वह समाज को आगे ले जाता है। जब कवि अपनी इस भूमिका का निर्वाह करता है तभी हम अपने
जातीय सम्मान की रक्षा कर पाते हैं।
विशेष :
I. कवि को प्रजापति ब्रह्मा की तरह बताया गया है।
II. साहित्यकार हमारे समाज का नियामक एवं दिशा निर्देशक
होता है।
III. भाषा सरल, सहज और प्रवाहपूर्ण हिन्दी है। विवेचनात्मक
शैली प्रयुक्त है।
बहुविकल्पीय प्रश्न
1. 'यथास्मै रोचते विश्वम्' के लेखक कौन है?
(क) रामविलास शर्मा
(ख) निर्मल वर्मा
(ग) भीष्म साहनी
(घ) रामचंद्र शुक्ल
2. 'यथास्मै रोचते विश्वम्' का अर्थ है ?
(क) विश्व सुंदर है।
(ख) जैसा संसार है।
(ग) उपरोक्त दोनों।
(घ) कवि को जैसे रुचता है वैसे ही संसार बदल
देता है।
3. रामविलास शर्मा की प्रयोगवादी कविताओं को
उनके द्वारा संपादित किस सप्तक में स्थान मिला ?
(क) दूसरा सप्तक
(ख) तीसरा सप्तक
(ग) तार सप्तक
(घ) इनमें से कोई नहीं
4. 'यथास्मै रोचते विश्वम्' कहां से संकलित
है?
(क) विराम चिन्ह
(ख) भाषा और समाज
(ग) इतिहास दर्शन
(घ) भारतीय संस्कृति
5. 'यथास्मै रोचते विश्वम्' कौन सी विधा है?
(क) कहानी
(ख) निबंध
(ग) कविता
(घ) नाटक
6. 'निराला की साहित्य साधना' कितने खंडों
में है?
(क) 1
(ख) 2
(ग) 3
(घ) 4
7. किनके बारे में कहा जाता है कि वे कला को
जीवन की नकल समझते थे ?
(क) यूनानी विद्वान
(ख) चीनी विद्वान
(ग) राजस्थानी विद्वान
(घ) कोई नहीं
8. अपने चरित्र नायक के गुण गिना कर किसने
नारद से पूछा ऐसा मनुष्य कौन है ?
(क) श्रीकृष्ण
(ख) राम
(ग) विश्वामित्र
(घ) वाल्मीकि
9. श्रीकृष्ण के शंख का क्या नाम है ?
(क) पांचजन्य
(ख) दोजन्य
(ग) तीनजन्य
(घ) इनमें कोई नहीं
10. हैमलेट किसकी रचना है ?
(क) विलियम
(ख) जेम्स
(ग) शेक्सपियर
(घ) इनमें से कोई नहीं
11. कवि की तुलना किससे की गई है?
(क) राजा
(ख) प्रजापति
(ग) रंक
(घ) कोई नहीं
12. समाज के दृष्टा और नियामक के मानव विहग
क्षुब्ध और रूद्ध स्वर को वाणी कौन देता है ?
(क) समाज
(ख) विदुषी
(ग) कवि
(घ) ऋषि
13. 'यदि साहित्य समाज का दर्पण होता तो संसार
को बदलने की बात न होती'। ये पंक्तियां किस पाठ की है ?
(क) 'यथास्मै रोचते विश्वम्'
(ख) कुटज
(ग) जहां कोई वापसी नहीं
(घ) इनमें कोई नहीं
14. किसका पांचजन्य समर भूमि में उदासीनता का
राग नहीं सुनाता ?
(क) कवि
(ख) साहित्य
(ग) राजा
(घ) इनमें कोई नहीं
15. 'मानव संबंधों की दीवाल से ही हेलमेट की
कवि सुलभ सहानुभूति टकराती है और शेक्सपियर एक महान ट्रेजडी की सृष्टि करता है'।
ये पंक्तियां किस पाठ की है ?
(क) कुटज
(ख) भाषा और समाज
(ग) 'यथास्मै रोचते विश्वम्'
(घ) इनमें कोई नहीं
JCERT/JAC REFERENCE BOOK
Hindi Elective (विषय सूची)
भाग-1 | |
क्रं.सं. | विवरण |
1. | |
2. | |
3. | |
4. | |
5. | |
6. | |
7. | |
8. | |
9. | |
10. | |
11. | |
12. | |
13. | |
14. | |
15. | |
16. | |
17. | |
18. | |
19. | |
20. | |
21. | |
भाग-2 | |
कं.सं. | विवरण |
1. | |
2. | |
3. | |
4. |
JCERT/JAC Hindi Elective प्रश्न बैंक - सह - उत्तर पुस्तक (Question Bank-Cum-Answer Book)
विषय सूची
अंतरा भाग 2 | ||
पाठ | नाम | खंड |
कविता खंड | ||
पाठ-1 | जयशंकर प्रसाद | |
पाठ-2 | सूर्यकांत त्रिपाठी निराला | |
पाठ-3 | सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय | |
पाठ-4 | केदारनाथ सिंह | |
पाठ-5 | विष्णु खरे | |
पाठ-6 | रघुबीर सहाय | |
पाठ-7 | तुलसीदास | |
पाठ-8 | मलिक मुहम्मद जायसी | |
पाठ-9 | विद्यापति | |
पाठ-10 | केशवदास | |
पाठ-11 | घनानंद | |
गद्य खंड | ||
पाठ-1 | रामचन्द्र शुक्ल | |
पाठ-2 | पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी | |
पाठ-3 | ब्रजमोहन व्यास | |
पाठ-4 | फणीश्वरनाथ 'रेणु' | |
पाठ-5 | भीष्म साहनी | |
पाठ-6 | असगर वजाहत | |
पाठ-7 | निर्मल वर्मा | |
पाठ-8 | रामविलास शर्मा | |
पाठ-9 | ममता कालिया | |
पाठ-10 | हजारी प्रसाद द्विवेदी | |
अंतराल भाग - 2 | ||
पाठ-1 | प्रेमचंद | |
पाठ-2 | संजीव | |
पाठ-3 | विश्वनाथ तिरपाठी | |
पाठ- | प्रभाष जोशी | |
अभिव्यक्ति और माध्यम | ||
1 | ||
2 | ||
3 | ||
4 | ||
5 | ||
6 | ||
7 | ||
8 | ||
Class 12 Hindi Elective (अंतरा - भाग 2)
पद्य खण्ड
आधुनिक
1.जयशंकर प्रसाद (क) देवसेना का गीत (ख) कार्नेलिया का गीत
2.सूर्यकांत त्रिपाठी निराला (क) गीत गाने दो मुझे (ख) सरोज स्मृति
3.सच्चिदानंद हीरानंद वात्सयायन अज्ञेय (क) यह दीप अकेला (ख) मैंने देखा, एक बूँद
4.केदारनाथ सिंह (क) बनारस (ख) दिशा
5.विष्णु खरे (क) एक कम (ख) सत्य
6.रघुबीर सहाय (क) वसंत आया (ख) तोड़ो
प्राचीन
7.तुलसीदास (क) भरत-राम का प्रेम (ख) पद
8.मलिक मुहम्मद जायसी (बारहमासा)
11.घनानंद (घनानंद के कवित्त / सवैया)
गद्य-खण्ड
12.रामचंद्र शुक्ल (प्रेमघन की छाया-स्मृति)
13.पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी (सुमिरिनी के मनके)
14.ब्रजमोहन व्यास (कच्चा चिट्ठा)
16.भीष्म साहनी (गांधी, नेहरू और यास्सेर अराफात)
17.असगर वजाहत (शेर, पहचान, चार हाथ, साझा)
18.निर्मल वर्मा (जहाँ कोई वापसी नहीं)
19.रामविलास शर्मा (यथास्मै रोचते विश्वम्)
21.हज़ारी प्रसाद द्विवेदी (कुटज)
12 Hindi Antral (अंतरा)
1.प्रेमचंद = सूरदास की झोंपड़ी
3.विश्वनाथ त्रिपाठी = बिस्कोहर की माटी