7. भरत राम का प्रेम पद
कवि परिचय
1. तुलसीदास के जन्म के संबंध में विभिन्न विद्वानों की अलग-अलग
धारणा है। बाबा बेनीमाधवदास और बाबा रघुवरदास के अनुसार गोस्वामी तुलसीदास का जन्म
1532 ई. में बाँदा जिले के राजापुर गाँव में हुआ था।
2. उनके पिता का नाम आत्माराम दुबे तथा माता का नाम हुलसी
था। इनके बचपन का नाम रामबोला था।
3. बाल्यकाल में ही माता-पिता के निधन के कारण इनका बचपन
घोर अभाव में बीता। इनके गुरु का नाम नरहरिदास था। उन्ही की कृपा से उन्होंने विभिन्न
शास्त्रों का अध्ययन किया।
4. तुलसीदास हिंदी साहित्य के भक्ति काल के सगुण भक्तिकाव्य
धारा के राममार्गी शाखा के प्रतिनिधि कवि हैं।
5. तुलसी के काव्य में लोकमंगल की भावना तथा समन्वय की विराट
चेतना समाहित है। उनकी रचनात्मक प्रतिभा अद्भुत है। तुलसीदास का भाव-जगत अत्यंत व्यापक
है। उनके काव्य में जीवन के लोकपक्ष का सुंदर संयोजन है।
6. इनके काव्य में भाव, छंद, काव्यरुप, भाषा आदि की विविधता
देखने को मिलती है। इन्होंने अवधी और ब्रजभाषा में समान रूप से
रचना की है।
7. प्रमुख रचनाएँ:-गीतावली, कृष्णगीतावली, रामचरितमानस, पार्वतीमंगल,
जानकीमंगल, विनयपत्रिका, दोहावली, वैराग्यसंदीपनी, रामाज्ञाप्रश्न, कवितावली, हनुमानबाहुक
आदि।
8. मानव प्रकृति तथा जीवन जगत के संबंध में उनकी अंतर्दृष्टि
अत्यंत व्यापक थी। इनकी मृत्यु के संबंध में एक दोहा प्रचलित है-
संवत सोलह सौ असी असी गंग के तीर।
श्रावण शुक्ला सप्तमी तुलसी तज्यो शरीर ॥
इस दृष्टि से इनका निधन 1623 ईस्वी को माना जाता है।
पाठ परिचय
(क) भरत राम का प्रेम भरत राम का प्रेम शीर्षक के अंतर्गत तुलसी ने भ्रातृत्व
प्रेम को सहजता के साथ उद्घाटित किया है। इस प्रसंग में राम के वनगमन उपरांत भरत की
मनोदशा का मार्मिक चित्रण है। राम से मिलने के कारण भरत के नयन स्नेह जल से भर गए हैं।
राम की स्तुति करते हुए भरत बाल्यकाल की स्मृतियों को स्मरण करते हुए कहते हैं कि आपका
मेरे प्रति सदैव से ही अत्यधिक प्रेम रहा है। बचपन में हारे हुए खेल को भी आप जीता
दिया करते थे। विधाता से यह सुख नही सहा गया और माता के रूप में यह बाधा उपस्थित हुई।
वह अनेक प्रकार से राम की स्तुति करते हुए उनकी अनुपस्थिति के कारण नगरवासियों और स्नेहीजनों
के दुख का वर्णन करते हैं। स्वयं को इस सारे अनर्थ का मूल मानते हुए अपनी वेदना को
प्रकट करते हैं।
(ख)
पद-
दूसरे खंड 'पद' को 'गीतावली' से लिया गया है। इसमें दो पद हैं। इन पदों में वियोग वात्सल्य
का मर्मस्पर्शी चित्रण है। पहले पद में माता कौशल्या जब राम के दैनिक उपयोग की वस्तुओं
को देखती हैं तो भावविह्वल हो कर उन स्मृतियों में खो जाती हैं जब राम उनके सामने उपस्थित
रहा करते थे। वह उन्हें प्रातः जगाती थी, अपने हाथों से भोजन खिलाती थी। परंतु जैसे
ही उन्हें भान होता है कि राम उनके सामने उपस्थित नहीं हैं तो वह विलाप करती हैं और
शीघ्र आने की आस में उनकी वस्तुओं को संभाल कर रखती हैं।
दूसरे
पद में माता कौशल्या राम के जाने से दुखी अश्वों को देखकर उन्हें फिर से अयोध्यापुरी
आने का निवेदन करती हैं। वह कहती हैं कि यद्यपि भरत उन अश्वों की उचित देखभाल करते
हैं, परन्तु वे इस प्रकार उदास हैं मानो कमल पर बर्फ की मार पड़ गयी हो। वह हर आने
जाने वाले पथिक को कहती हैं उनका संदेश वह राम तक पहुंचा दें। इन पदों में माँ की व्याकुल
मनोदशा का चित्रण है।
व्याख्या
(क)
भरत - राम का प्रेम।
पुलकि सरीर सभा भए ठाढ़े।
नीरज नयन नेह जल बाढ़े ।।
कहब मोर मुनिनाथ निबाहा।
एहि ते अधिक कहाँ मैं काहा।।
मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ।
अपराधिहु पर कोह न काऊ ।।
मो पर कृपा सनेहु बिसेखी। खेलत खुनिस न कबहूँ देखी।।
सिसुपन तें परिहरेउँ न संगू।
कबहूँ न कीन्ह
मोर मन भंगू।।
मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही।
हारेहूँ खेल जितावहिं मोंही।।
महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कही न बैन ।
दरसन तृपित न आजु लगि पेम पियासे नैन।।
1 शब्दार्थः-पुलकि-प्रसन्न होकर। समीर- वायु। नीरज नयन-कमल के समान नेत्र।
नेह जल-प्रेम रूपी आंसू। बाढे-बहने लगे। कहब- कहने लगे। मोर-मेरे। निबाहा-निर्वाह किया।
जानउँ-जानता हूँ। सुभाऊ-स्वभाव। कोह- क्रोध। बिसेखी-विशेष। खुनिस-गुस्सा, क्रोध। सिसुपन-बचपन।
परिहरेउँ-त्यागना। सकोच- संकोच, लज्जा। पेम-प्रेम, स्नेह। पिआसे- प्यासे, अतृप्त।
2. प्रसंग:- प्रस्तुत पंक्तियां हमारी पाठ्यपुस्तक 'अंतरा भाग-2' के
अंतर्गत 'भरत-राम के प्रेम' से उदधृत है। इन पंक्तियों में श्रीराम के वनगमन के उपरांत
भरत की मनोदशा का चित्रण किया गया है। भरत चित्रकूट की सभा में बैठे हुए हैं जहां उनके
गुरु वशिष्ठ सुशोभित हैं।
3. व्याख्या:-चित्रकूट में आयोजित सभा में राम अपने भाई भरत की प्रशंसा
करते हैं, तो मुनि वशिष्ठ भरत से भी अपने मन की बात कहने को कहते हैं। यह सुनकर भरत
का शरीर रोमांचित हो जाता है और वह सभा में खड़े हो जाते हैं। उनके कमल के समान नेत्रों
से आंसुओं की बाढ़ सी आ जाती है। वह कहते हैं कि मुझे जो कुछ भी कहना था वह तो मेरे
गुरुजन पहले ही कह चुके हैं, इससे अधिक मैं क्या कह सकता हूं। मैं अपने स्वामी श्री
राम का स्वभाव बहुत अच्छे से जानता हूं , वह अपराधी पर भी क्रोध नहीं करते, मुझ पर
तो उनकी विशेष कृपा रही है। मैंने खेल में भी कभी उनकी खीझ नहीं देखी।
मैं बचपन से ही उनके साथ रहा हूं और उन्होंने भी मेरे मन
को कभी ठेस नहीं पहुंचाई। मैंने प्रभु की कृपा के तरीके को भलीभांति देखा है वह स्वयं
खेल में हार कर हमें जीताते रहे हैं। मैंने सदा उनका सम्मान किया है और प्रेम के संकोच
वश उनके सामने कभी भी मुंह नहीं खोला। मैं अपने भाई व स्वामी राम से इतना अधिक प्रेम
करता हूं कि मेरे नेत्र आज तक प्रभु राम के दर्शन से तृप्त नहीं हुए।
4. विशेष:-इन पंक्तियों में भरत का राम के प्रति अनन्य प्रेम अभिव्यक्त
हुआ है।
अवधी भाषा का सुंदर प्रयोग हुआ है।
माधुर्य गुण एवं अभिधा शब्द शक्ति का प्रयोग हुआ है।
'नीरज नयन' तथा 'नेह जल में रूपक अलंकार है।
दोहा, चौपाई, छंद है।
पूरे पद में संगीतात्मकता की छटा है।
काव्यांश में अनुप्रास अलंकार की छटा देखते बनती है।
(ख) भरत-राम का प्रेम
बिधि न सकेउ सहि मोर दुलारा।
नीच बीचु जननी मिस पारा।।
यहउ कहत मोहि आजु न सोभा।
अपनी समुझि साधु सुचि को भा।।
मातु मंदि मैं साधु सुचाली।
उर अस आनत कोटि कुचाली ।।
फरइ कि कोदेव बालि सुसाली।
मुकता प्रसव कि संबुक काली।।
सपनेहुँ दोसक लेसु न काहू।
मोर अभाग उदधि अवगाहू।।
बिनु समुझें निज अघ परिपाकू।
जारिउँ जायें जननि कहि काकू ।।
हृदयँ हेरि हारेउँ सब ओरा।
एकहि भाँति भलेंहि भल मोरा ।।
गुर गोसाइँ साहिब सिय रामू।
लागत मोहि नीक परिनामू ।।
साधु सभाँ गुर प्रभु निकट कहउँ सुथल सति भाउ।
प्रेम प्रपंचु कि झूठ फुर जानहिं मुनि रघुराऊ ।।
1. शब्दार्थः बिधि-विधाता, भाग्य। मिसु-बहाने।पारा-अंतर। सुचि-पवित्र।
को भा-कौन हुआ। मंदि-नीच। सुचाली-सदाचारी। उर-हृदय। कोटि-करोड़। कुचाली-गलत आचरण। फरै-
फलना फूलना। मुकुता-मोती। प्रसव-पैदा करना। संबुक-घोंघा। दोसक-दोष। उदधि- समुद्र। अघ-पाप।
परिपाकू-परिपक्व, परिणाम। जारिउँ-जला
दिया। जननि-माता। हेरि-खोजना, ढूंढना। नीक-सही, अच्छा। सुथल-तीर्थ-स्थान। सुसाली-धान
के। सतिभाउ-सत्यभाव। फुर-सत्य।
2. प्रसंग:- प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक 'अंतरा भाग 2' में
संकलित 'भरत-राम के प्रेम से उदधृत हैं। इन पंक्तियों को 'रामचरित मानस के 'अयोध्या
कांड' से लिया गया है। तुलसीदस जी ने इसमें राम वन गमन के उपरांत भरत की मनोदशा का
वर्णन किया है।
3. व्याख्याः- भरत कहते हैं कि विधाता हम भाइयों के परस्पर प्रेम को सहन नहीं कर पाये और माता के कदर्य
आचरण के द्वारा हमारे बीच में दीवार खींच दी। यह कहते हुए भी मुझे शोभा नहीं देता है।
क्योंकि अपनी समझ से कौन साधु और पवित्र हुआ है? जिसको दूसरे लोग साधु और पवित्र माने
सही मायनों में वही पवित्र है। माता नीच है और मैं सदाचारी हूँ, ऐसा विचार हृदय में
लाना ही करोड़ों दुराचार के समान है। क्या कभी कोदो की बाली से उत्तम कोटि का धान उत्पन्न
हो सकता है? क्या काली घोंघी से मोती उत्पन्न किया जा सकता है? मैं सपने में भी किसी
को दोष नहीं देना चाहता। मेरा अभाग्य अथाह समुद्र के समान है। मैंने अपने पापों का
परिणाम जाने बिना ही अपनी माता को कठोर बचन कह कर जलाया जो किसी भी प्रकार से उचित
नहीं है।
मैं अपने हृदय में सभी जगह ढूंढकर हार गया, पर मेरी भलाई
का साधन कहीं नहीं मिला। अब एक ही प्रकार से मेरा भला हो सकता है। वह यह कि गुरु महाराज
सर्व समर्थ हैं। सीता रामजी मेरे स्वामी हैं। इन्ही के शरण में सुखद परिणाम की प्राप्ति
संभव है। साधुओं की सभा में अपने गुरु और स्वामी के बीच इस पवित्र स्थान पर मैं सत्य
भाव से कह रहा हूँ। यह प्रेम है या प्रपंच? झूठ है या सच? यह सर्वज्ञ गुरु वशिष्ठ जी और अन्तर्यामी प्रभु श्रीराम जानते
हैं।
4. विशेष:- अवधी भाषा का सुंदर प्रयोग है।
चौपाई तथा दोहा छंद है।
'अभाग उदधि' में रूपक अलंकार है।
करुण तथा भक्ति रस से युक्त पंक्तियाँ हैं। दास्य भाव की
भक्ति इन पंक्तियों में प्रकट हुई है।
अनुप्रास की छटा सर्वत्र व्याप्त है।
(ग) भरत - राम का प्रेम
भूपति मरन पेम पनु राखी। जननी कुमति जगतु सबु साखी ॥
देखी न जाहिं विकल महतारीं। जरहिं दूसह जर पुर नर नारीं ॥
महीं सकल अनरथ कर मूला। सो सुनि समुझि सहिउँ सब सूला ॥
सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा। करि मुनि वेष लखन सिय साथा ॥
बिन पानहिन्ह पयादेहि पाएँ। संकरु साखि रहेउँ ऐहि घाएँ ॥
बहुरि निहारि निषाद सनेहू। कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू ॥
अब सबु आँखिन्ह देखेउँ आई। जिअत जीव जड़ सबइ सहाई ॥
जिन्हहि निरखि मग साँपिनि बीछी। तजहिं विषम बिषु तापस तीछी
॥
तेइ रघुनंदनु लखनु सिय अनहित लागे जाहि ॥ तासु तनय तजि दुसह
दुख दैउ सहावइ काहि ॥
1. शब्दार्थ:- भूपति-राजा दशरथ। पनु-प्रण। साखी-साक्षी।
बिकल-व्याकुल। महतारी-माताएँ।
पुर-नगर। महीं-मैं ही। सकल-सब, सम्पूर्ण। अनरथ- अनर्थ। मूला-जड़। सूला-काँटें। पानहिन्ह-
खड़ाऊँ, जूता। पयादेहि-पैदल। संकरु साखी-शंकर साक्षी हैं। घाएँ-घाव। कुलिस- कठोर, वज्र।
निरखि-देखकर। बीछीं- बिच्छू। तजहिं-त्यागते हैं। बिषु-विष, जहर। तनय-पुत्र। बहुरि-देर
तक। मग-रास्ता।
2. प्रसंग:- प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक 'अंतरा भाग2' में
संकलित 'भरत-राम के प्रेम से उदधृत हैं। इन पंक्तियों को 'रामचरित मानस के 'अयोध्या
कांड' से लिया गया है। तुलसीदस जी ने इसमें राम वन गमन के उपरांत भरत की मनोदशा का
वर्णन किया है।
3. व्याख्या:- भरत कहते हैं कि सारा संसार इस बात का साक्षी है कि किस प्रकार
माता की कुबुद्धि के कारण पिता को मृत्यु प्राप्त हो गई अर्थात् राम को वनवास मिला
और राम से बिछड़ने के कारण ही महाराज दशरथ का निधन हुआ !
सभी माताएं राम के वियोग से दुखी हैं और उनका दुख मुझसे देखा
नहीं जाता अवध के सभी नर और नारी असहनीय दुख से जल रहे हैं। आगे भरत दुख जताते हुए
कहते हैं कि यह सब जो भी अनर्थ हुआ है यह सब मेरी वजह से ही हुआ है।
श्रीराम लक्ष्मण और सीता जी के साथ मुनियों का वेश धारण करके
बिना पैरों में कुछ पहने नंगे पांव ही वन में चले गए, शिवशंकर ही इस बात के साक्षी
है कि इतने दुखों के बाद भी मैं जिंदा हूं!
आगे भरत खुद को कठोर हृदय का बताते हुए कह रहे हैं कि, निषाद
राज का प्रेम देखकर भी मेरा हृदय नहीं पिघला। अब मैंने यहां आकर सब कुछ अपनी आंखों
से देख लिया है, और यह जड़ जीव जिंदा रह कर सभी दुख सहेगा। जिनको देखकर भयानक सांप
और बिच्छू भी अपने विष को त्याग देते हैं, वे ही राम लक्ष्मण और सीता जिनको शत्रु प्रतीत
हों, उस माँ के पुत्र यानि मुझको छोड़कर विधाता यह दुःसह दुख और किसे प्रदान करेगा।
4. विशेष:-
भरत स्वयं को इन सभी घटनाओं का उत्तरदायी मानते हुए राम के
समक्ष पश्चाताप करते हैं।
पद्यांश की भाषा अवधी है।
चौपाई तथा दोहा छंद का सुंदर संयोजन है।
'कुलिस कठिन उर' में रूपक अलंकार है।
'पेम पनु', 'सबु साखी', 'सिय साथा', संकरु साखी', निहारि
निषाद', 'कुलिन कठिन', 'जियत जीव जड़', 'तासु तनय तजि' आदि में अनुप्रास की अनुपम छटा
है।
पद 1
जननी निरखति बान-धनुहियाँ।
बार-बार उर नैननि लावति प्रभुजूकी ललित पनहियाँ।।
कबहूँ प्रथम ज्यों जाइ जगावति कहि प्रिय बचन सवारे।
"उठहु तात! बलि मातु बदन पर, अनुज-सखा सब द्वारे।।"
कबहूँ कहति यों, "बड़ी बार भई जाहु भूप पहँ, भैया।
बन्धु बोलि जेंइय जो भावै, गई निछावरि मैया "।।
कबहूँ समुझि वनगमन रामको रहि चकि चित्र लिखी-सी।
तुलसीदास वह समय कहे तें लागति प्रीति सिखी-सी।।
1. शब्दार्थ:-जननी- माता। निरखति-देखकर। बान-तीर, बाण। धनुहियाँ-धनुष।
उर-हृदय। सवारे-सुबह। नैननि-आँखों
में। ललित-सुंदर। पनहियाँ-जूते। जाइ जगावति- जाकर जगाती हैं। बलि न्यौछावर। अनुज छोटा
भाई। बड़ी बार भई-बहुत देर हो गई। जाहु-जाओ। भूप-राजा। चकि-देखती रही। चित्रलिखी सी-चित्र
के समान। प्रीति-प्रेम। सिखी सी-मोरनी के समान।
2. प्रसंग:-प्रस्तुत पद हमारी पाठ्यपुस्तक 'अंतरा भाग 2' में संकलित तुलसीदास के 'पद' खंड से ली गयी
हैं। यह पद तुलसीदास द्वारा रचित 'गीतावली' से अवतरित है। इसमें राम के वनगमन उपरांत
माता कौशल्या की विरह वेदना की मार्मिक व्यंजना हुई है।
वह श्रीराम के जाने के बाद उनके सभी खिलोनों को दिल से लगाती
हैं और उन्हें याद करती हैं।
3.
व्याख्या:- माता कौशल्या श्रीराम के खेलने वाले धनुष बाण
को देखती है। उनकी सुंदर नन्ही नन्ही जूतियों को अपने हृदय और आँखों से बार बार लगाती
हैं। कभी कभी पहले की तरह सुबह सुबह शयन कक्ष में जाकर माता कौशल्या श्रीराम को प्यारे
प्यारे वचन कह कर जगाने लगती है। माता कौशल्या अपने पुत्र के सुंदर मुखमंडल को देख
बलिहारी जाती हैं। और उन्हें यह कह कर उठाती हैं कि सब छोटे भाई और मित्र द्वार पर
तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। और कभी कभी माता कौशल्या कहती हैं, भैया बहुत देर हो
गई है महाराज के पास जाओ भाइयों को बुला लाओ तथा जो मन भावे सो खा लो। श्रीराम के बालपन
की क्रीड़ाओं को देखकर वह उन पर न्योछावर हो जाती हैं। परंतु जैसे ही उन्हे श्री राम
के वनगमन की बात याद आती है तो वह ज्यादा दुखी हो जाती हैं तथा एक चित्र की तरह स्थिर
रह जाती हैं।
तुलसीदास
कहते है उस समय माता कौशल्या की स्थिति उस मोर के समान हो जाती है जो अपने पंखों को
देख खुश होकर नाचता रहता है और जैसे ही उसकी नज़र अपने पाँव पर जाती है वह रोने लगता
है।
4.
विशेष:-
इस
पद में ब्रजभाषा का सहज प्रयोग है।
यहाँ
वात्सल्य की वियोगावस्था का चित्रण है।
यहाँ
माता कौशल्या का पुत्र राम के प्रति अलौकिक प्रेम चित्रित है।
यहाँ वात्सल्य रस का विवेचन है।
'ज्यों जाइ जगावति', 'सखा सब', 'कबहूँ कहति' आदि में अनुप्रास
अलंकार है।
'रहि चकि चित्रलिखी सी' तथा 'लागति प्रीति सिखी सी' में उपमा
अलंकार है।
पद 2
राघौ! एक बार फिरि आवौ।
ए बर बाजि बिलोकि आपने, बहुरो बनहि सिधावौ ॥
जे पय प्याइ पोखि कर पंकज वार वार चुचुकारे।
क्यों जीवहिं, मेरे राम लाड़िले। ते अब निपट बिसारे।।
भरत सौगुनी सार करत हैं अति प्रिय जानि को तिहारे।
तदपि दिनहिं दिन होत झाँवरे मनहुँ कमल हिममारे।।
सुनहु पथिक! जो राम मिलहिं बन कहियो मातु-सँदेसो।
तुलसी मोहिं और सबहिन तें इन्हको बड़ो अंदेसो ॥
1. शब्दार्थ:- राघौ-राघव, श्रीराम। फिरि-फिर से, पुनः। आवौ-आ जाओ। ए बर-इस
बार। बाजि-अश्व, घोड़ा। बिलोकि देखकर। जे यदि। पय-पानी। प्याइ-पिलाकर। पोखि कर- पोंछ
कर। पंकज-कमल। चुचुकारे-चूमकर। जीवहिं-जियें। ते-तुम। निपट-बिल्कुल।
बिसारे-भूल गए। सार-देखभाल। जानि- जानकर। झांवरे-कुम्हलाना।
पथिक-यात्री। संदेसो-संदेश।
2. प्रसंगः प्रस्तुत पद हमारी पाठ्यपुस्तक 'अंतरा भाग 2' में संकलित
तुलसीदास के 'पद' खंड से ली गयी हैं। यह पद तुलसीदास द्वारा रचित 'गीतावली' से अवतरित
है। इसमें राम के वनगमन उपरांत माता कौशल्या की विरह वेदना की मार्मिक व्यंजना हुई
है। माता कौशल्या राम के वियोग में दुखी घोड़ों को देखकर उनके शीघ्र लौट आने की कामना
करती हैं।
3. व्याख्या:- माता कौशल्या राम से निवेदन करती हैं कि- 'हे राघव । मेरे
बेटे। तुम केवल एक बार तो अवश्य लौट आओ। यहाँ अपने इन श्रेष्ठ घोड़ों देखकर फिर वन
में चले जाना। जिन्हें तुमने दूध पिलाकर, अपने ही करकमलों से पुष्टकर बारंबार चुचकारा
था। ऐ मेरे लाड़िले राम! वे अब एकाएक भूल जाने से कैसे जीवित रह सकेंगे ? तुम्हारे
अत्यन्त प्रिय जानकर यद्यपि भरतजी इनकी सौगुनी सँभाल रखते हैं तो भी पालेके मारे हुए
कमल के समान ये दिनोंदिन दुर्बल होते जा रहे हैं। पुत्र वियोग में व्याकुल माता हर
आने जाने वाले रही से कहती हैं कि यदि तुम्हें वनमें मेरा लाड़ला राम मिल जाये तो तुम
उससे माता का यह संदेश कहना कि मुझे सबसे बढ़कर इन घोड़ों की ही चिन्ता है उससे कहना
कि केवल एक बार तो वह अवश्य ही अयोध्या लौट आए और अपने इन घोड़ों की दशा देखकर फिर
वनमें चला जाए।
4.
विशेष:-
पुत्र
वियोग में व्याकुल माता कौशल्या का मर्मस्पर्शी चित्र इन पंक्तियों में उपस्थित हुआ
है।
यहाँ
वात्सल्य रस का अद्वितीय विवेचन है।
भाषा
में सहजता भावानुकूलता प्रभावोत्पादकता का सहज प्रयोग है।
ब्रजभाषा
का सुंदर संयोजन है।
'बर
बाजि बिलोकि', 'बहुरो बनहिं', 'सौगुनी सार', 'दिनहिं दिन' आदि में अनुप्रास अलंकार
है।
'कर-पंकज'
में रूपक अलंकार है।
'वार-वार'
में पुनरुक्ति अलंकार है।
'तदपि
दिनहिं दिन होत झाँवरे मनहुँ कमल हिममारे' में
उत्प्रेक्षा
अलंकार है।
पाठ का प्रश्न - अभ्यास
1. ' हारेहुँ खेल जितावहिं मोही' भारत के इस कथन का क्या आशय है?
उत्तर:-इस
कथन के द्वारा भरत का राम के प्रति अटूट आस्था और विश्वास प्रकट होता है। बाल्यकाल
में श्रीराम हारे हुए खेल में भी अपने अनुज को जीता दिया करते थे। यह भाइयों के प्रति
उनकी सहृदयता और प्रेम का परिचायक है। इस कथन के माध्यम से एक और भाव व्यंजित होता
है कि राम वनगमन प्रसंग में भरत अपने आप को हारा हुआ अनुभव कर रहे हैं। वह स्वयं को
सभी प्रकार के अनर्थ का मूल कारण मानते हैं। वह बचपन के इसी घटनाक्रम के आधार पर श्रीराम
से वापस अयोध्या लौटने का आग्रह कर रहे हैं ताकि राम उन्हें इस हारे हुए खेल में विजय
दिला सकें।
2. मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ' में राम के स्वभाव की किन विशेषताओं की
ओर संकेत किया गया है?
उत्तरः-इन
पंक्तियों के माध्यम से भरत राम के स्नेहिल हृदय की व्यापकता को प्रदर्शित कर रहे हैं।
श्रीराम इतने सहज हैं कि अपराधी व्यक्ति को भी कभी कठोर दंड नहीं देते हैं। बाल्यकाल
से ही भरत पर उनकी विशेष स्नेह दृष्टि रही है। कभी खेल में भी क्रोधित होते हुए उन्हें
नहीं देखा गया है। अर्थात् राम का व्यवहार सहज, सरल और निश्छल है। वह करुणा के सागर
हैं। भक्त वत्सल हैं।
3. राम के प्रति अपने श्रद्धाभाव को भरत किस प्रकार प्रकट करते हैं,
स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:-राम
के प्रति भरत की गहन आस्था, विश्वास और श्रद्धा भाव प्रकट हुआ है। वह राम की स्तुति
करते हुए कहते हैं कि आप
परम कृपालु हैं। बचपन से ही आपकी स्नेह दृष्टि मुझ पर विशेष रूप से रही है। भरत स्वयं
को राम वनगमन का दोषी मानते हुए अपने अपराधों की क्षमा मांगते हैं। तथा वह श्रीराम
और सीता को अपना गुरु, स्वामी और साहब मानते हैं। स्वयं को भक्त और सीताराम को भक्त
वत्सल कहकर अपनी श्रद्धा प्रकट करते हुए अवधपुरी वापस चलने का निवेदन करते हैं।
4. 'महीं सकल अनरथ कर मूला' पंक्ति द्वारा
भरत के विचारों भावों का स्पष्टीकरण कीजिये।
उत्तरः-भरत स्वयं को हर प्रकार के अनर्थ का मूल कारण मानते
हैं। चाहे वह राम का वनगमन हो या पिता की मृत्यु। भरत कहते हैं कि वह सज्जन या साधु
नहीं हैं क्योंकि साधु असाधु का निर्णय तो कोई दूसरा ही कर सकता है। अपने मन से तो
हर कोई पवित्र और साधु है। माता को नीच और स्वयं को सत्पुरुष कहना ऐसा भाव हृदय में
लाना भी करोड़ों पाप के समान है। इसलिए वह स्वयं को ही इस सारे घटनाक्रम का दोषी स्वीकार
करते हैं जो उनके उदात्त चरित्र का परिचायक है। इन पंक्तियों में भरत की कृतज्ञता और
भ्रातृत्व प्रेम की उत्कट व्यंजना हुई है। स्वयं दोष ग्रहण करना भरत की सज्जनता का
परिचायक है।
4. 'फरइ कि कोदव बालि सुसाली। मुकता प्रसव
कि संबुक काली'। पंक्ति में छिपे भाव और शिल्प-सौन्दर्य को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर : भाव-सौन्दर्य- इन पंक्तियों में भरत का कहना
है कि जननी में जब अच्छे संस्कार होंगे तो उसका पुत्र भी उत्तम आचरणकारी होगा। कुबुद्धि
युक्त माता का पुत्र भला सत्पुरुष कैसे हो सकता है? वह उदाहरण देकर कहते हैं कि कोदो
की बाली से उत्तम कोटि का धान उत्पन्न नहीं हो सकता तथा काली घोंघी में मोती को उत्पन्न
करने की कल्पना करना भी व्यर्थ है। इसमें कोदो और काली घोंघी का प्रतीकात्मक प्रयोग
कैकेयी के लिए हुआ है।
शिल्प सौन्दर्य
अवधी भाषा का प्रयोग है।
'बाली', 'सुसाली', 'काली' में अन्त्यानुप्रास अलंकार है।
यहाँ प्रतीकात्मक शैली का प्रयोग है।
चौपाई छंद है।
कोदव (कोदों) और संबुक (घोंघा) कैकेयी के प्रतीक हैं तो सुसाली
(धान) और मुकुता (मोती) भरत के प्रतीक हैं।
भरत जी का अभिप्राय यह व्यक्त करना है कि लोग यही सोचते होंगे
कि दुष्ट माता (कैकेयी) का पुत्र (भरत) भी दुष्ट ही होगा क्योंकि जब माता दुष्ट स्वभाव
की है तो पुत्र भी सज्जन नहीं हो सकता।
पद
1. राम के वन-गमन के बाद उनकी वस्तुओं को देखकर
माँ कौशल्या कैसा अनुभव करती हैं? अपने शब्दों में वर्णन कीजिए।
उत्तर:- राम के वनगमन के बाद माता
कौशल्या उनके द्वारा प्रयुक्त सारी
वस्तुओं को बार-बार अपने हृदय से लगाती हैं। उन्हें ऐसा लगता है कि वह उन्हें जगा रही
हैं तथा अपने मित्र बंधुओं के साथ खेलने के लिए उत्साहित कर रही हैं। कभी वह उन्हें
सुस्वादु व्यंजन परोस रही हैं तथा कभी राजा दशरथ के पास जाने का आग्रह कर रही हैं।
किंतु जैसे ही उन्हें यह स्मरण होता है कि राम वन को गए हैं, वह किसी चित्र की भांति
जड़वत हो जाती हैं। पुत्र वियोग में वह व्याकुल हो जाती हैं।
2. 'रहि चकि चित्रलिखी सी' पंक्ति का मर्म
अपने शब्दों में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:-जैसे चित्र में बनी वस्तुएँ जड़ होती हैं उसी प्रकार
माता कौशल्या भी यह समझकर कि राम तो वन चले गए हैं जड़ हो जाती हैं। चित्र में अंकित
कोई व्यक्ति बोलता, सुनता अथवा कोई काम नहीं करता है, चलना- फिरता नहीं है, उसी प्रकार
की अवस्था माता कौशल्या की हो गई है। उनकी इसी दशा को कवि ने 'रहि चकि चित्रलिखी सी'
कहा है।
3. गीतावली से संकलित पद 'राघौ एक बार फिरि
आवौ' में निहित करुणा और संदेश को अपने शब्दों में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:- इस पद से यह व्यक्त होता है कि माता कौशल्या अपने
पुत्र राम के वियोग में अत्यन्त व्याकुल हैं। वात्सल्य वियोग से युक्त इस पद में राम
के दर्शन हेतु कौशल्या की व्याकुलता व्यंजित है। भले ही वे कह रही हों कि तुम्हारे
प्रिय घोड़े तुम्हारे चले जाने से दुखी हैं अतः तुम आकर उन्हें अपने दर्शन दे दो, पर
वास्तविकता यही है कि वे स्वयं राम को देखने के लिए व्याकुल हैं। राम का पशु प्रेम
भी व्यंजित है।
तुलसीदास ने रामचरितमानस में भी लिखा है-'जासु वियोग विकल
पसु ऐसे। उसी प्रकार की बात कवि ने यहाँ कही है कि राम के वियोग में उनके घोड़े इस
प्रकार दुर्बल हो गए हैं जैसे पाला पड़ने से कमल मुरझा जाते हैं। ऐसी ही दशा सभी अयोध्यावासियों
की राम के वियोग में हो रही है। इस पद में राम के हृदय की करुणा व्यक्त हुई है। इस
पद से संदेश मिलता है कि राम अत्यन्त उदार हैं। इससे माता कौशल्या का वात्सल्यभाव भी
व्यक्त हुआ है।
4. (क) उपमा अंलकार के दो उदाहरण छाँटिये।
उत्तरः उपमा अंलकार के दो उदाहरण इसप्रकार है-
'कबहुँ समूझी वनगमन राम को रही चकि चित्रलिखी सी' इस पंक्ति
में, 'चित्रलिखी सी में उपमा अलंकार है। राम को अपने पास नहीं पाने पर माता कौशल्या
चित्र के स्त्री की भांति स्तब्ध खड़ी रहती है। हिलती-डुलती नहीं है। तथा उपमा का दूसरा
उदाहरण है-
'तुलसीदास वह समय कहे ते लागति प्रीति सिखी सी' इस पंक्ति
में सिखी सी उपमा अलंकार है। इसमें माता कौशल्या की स्थिती मोरनी की तरह दिखाई गई है।
वर्षा होने पर मोरनी उत्साहित होकर नृत्य करने लगती है परंतु जब वह अपने पैरों को देखती
है तो दुखी होकर रोने लगती है।
(ख) उत्प्रेक्षा अंलकार का प्रयोग कहाँ और
क्यों किया गया है? उदाहरण सहित उल्लेख कीजिए।
उत्तर:- गीतावली के दूसरे पद की पंक्ति" तदपि दिनहिं
दिन होत झाँवरे मनहुँ कमल हिममारे" में उत्प्रेक्षा अंलकार का प्रयोग हुआ है।
इसमें राम के वियोग से दुखी घोड़े के दुःख की तुलना कमलों से की गई है जो बर्फ की मार
के कारण मुरझा रहे हैं। इस प्रकार तुलसीदास जी ने घोड़े की व्यथा को जीवंत कर दिया
है।
10. पठित पदों के आधार पर सिद्ध कीजिए कि तुलसीदास
का भाषा पर पूरा अधिकार था।
उत्तरः तुलसीदास की रचनाओं को पढ़कर यह ज्ञात होता है कि उन्हें बहुत सी भाषाओं के बारे में ज्ञान था। उन्हें संस्कृत, ब्रज और अवधी इन सभी भाषाओं के बारे में ज्ञान था। तुलसीदास जी ने तत्कालीन समय में प्रचलित सभी काव्य-रूपों को अपने काव्य में स्थान दिया है। उन्होंने गीतावली की रचना पद शैली में की है। तुलसीदास ने अनुप्रास अलंकार का प्रयोग उत्कृष्टता से किया है। कहीं-कहीं उपमा अलंकार और उत्प्रेक्षा अलंकार का प्रयोग भी किया है। उन्होंने दोहा, सोरठा, चौपाई, सवैया, आदि छंदों का प्रयोग बहुलता से किया है। श्रृंगार, वीर, करुण, भक्ति आदि रसों का उत्तम परिपाक इनकी काव्य रचनाओं में हुआ है। अतः हम निःसंदेह यह कह सकते हैं कि तुलसीदास का भाषा पर पूरा अधिकार था।
JCERT/JAC REFERENCE BOOK
Hindi Elective (विषय सूची)
भाग-1 | |
क्रं.सं. | विवरण |
1. | |
2. | |
3. | |
4. | |
5. | |
6. | |
7. | |
8. | |
9. | |
10. | |
11. | |
12. | |
13. | |
14. | |
15. | |
16. | |
17. | |
18. | |
19. | |
20. | |
21. | |
भाग-2 | |
कं.सं. | विवरण |
1. | |
2. | |
3. | |
4. |
JCERT/JAC Hindi Elective प्रश्न बैंक - सह - उत्तर पुस्तक (Question Bank-Cum-Answer Book)
विषय सूची
अंतरा भाग 2 | ||
पाठ | नाम | खंड |
कविता खंड | ||
पाठ-1 | जयशंकर प्रसाद | |
पाठ-2 | सूर्यकांत त्रिपाठी निराला | |
पाठ-3 | सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय | |
पाठ-4 | केदारनाथ सिंह | |
पाठ-5 | विष्णु खरे | |
पाठ-6 | रघुबीर सहाय | |
पाठ-7 | तुलसीदास | |
पाठ-8 | मलिक मुहम्मद जायसी | |
पाठ-9 | विद्यापति | |
पाठ-10 | केशवदास | |
पाठ-11 | घनानंद | |
गद्य खंड | ||
पाठ-1 | रामचन्द्र शुक्ल | |
पाठ-2 | पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी | |
पाठ-3 | ब्रजमोहन व्यास | |
पाठ-4 | फणीश्वरनाथ 'रेणु' | |
पाठ-5 | भीष्म साहनी | |
पाठ-6 | असगर वजाहत | |
पाठ-7 | निर्मल वर्मा | |
पाठ-8 | रामविलास शर्मा | |
पाठ-9 | ममता कालिया | |
पाठ-10 | हजारी प्रसाद द्विवेदी | |
अंतराल भाग - 2 | ||
पाठ-1 | प्रेमचंद | |
पाठ-2 | संजीव | |
पाठ-3 | विश्वनाथ तिरपाठी | |
पाठ- | प्रभाष जोशी | |
अभिव्यक्ति और माध्यम | ||
1 | ||
2 | ||
3 | ||
4 | ||
5 | ||
6 | ||
7 | ||
8 | ||
Class 12 Hindi Elective (अंतरा - भाग 2)
पद्य खण्ड
आधुनिक
1.जयशंकर प्रसाद (क) देवसेना का गीत (ख) कार्नेलिया का गीत
2.सूर्यकांत त्रिपाठी निराला (क) गीत गाने दो मुझे (ख) सरोज स्मृति
3.सच्चिदानंद हीरानंद वात्सयायन अज्ञेय (क) यह दीप अकेला (ख) मैंने देखा, एक बूँद
4.केदारनाथ सिंह (क) बनारस (ख) दिशा
5.विष्णु खरे (क) एक कम (ख) सत्य
6.रघुबीर सहाय (क) वसंत आया (ख) तोड़ो
प्राचीन
7.तुलसीदास (क) भरत-राम का प्रेम (ख) पद
8.मलिक मुहम्मद जायसी (बारहमासा)
11.घनानंद (घनानंद के कवित्त / सवैया)
गद्य-खण्ड
12.रामचंद्र शुक्ल (प्रेमघन की छाया-स्मृति)
13.पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी (सुमिरिनी के मनके)
14.ब्रजमोहन व्यास (कच्चा चिट्ठा)
16.भीष्म साहनी (गांधी, नेहरू और यास्सेर अराफात)
17.असगर वजाहत (शेर, पहचान, चार हाथ, साझा)
18.निर्मल वर्मा (जहाँ कोई वापसी नहीं)
19.रामविलास शर्मा (यथास्मै रोचते विश्वम्)
21.हज़ारी प्रसाद द्विवेदी (कुटज)
12 Hindi Antral (अंतरा)
1.प्रेमचंद = सूरदास की झोंपड़ी
3.विश्वनाथ त्रिपाठी = बिस्कोहर की माटी