12th Sanskrit 5. शुकनासोपदेशः JCERT/JAC Reference Book

12th Sanskrit 5. शुकनासोपदेशः JCERT/JAC Reference Book

12th Sanskrit 5. शुकनासोपदेशः JCERT/JAC Reference Book

5. शुकनासोपदेशः

अधिगम- प्रतिफलानि

1. पाठ्यपुस्तकागतान् गद्यपाठान् अवबुध्य तेषां सारांशं वक्तुं लेखितुं च समर्थः अस्ति।

(पुस्तक में आए हुए गद्य पाठों को समझकर उनका सारांश बोलने और लिखने में समर्थ होते हैं।)

2. तदाधारितानां प्रश्नानाम् उत्तराणि संस्कृतेन वदति लिखति च ।

(उनपर आधारित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत में बोलते और लिखते हैं।)

3. अपठितगद्यांशं पठित्वा तदाधारित प्रश्नानामुत्तरप्रदाने सक्षमः अस्ति

(अपठित गद्यांश को पढ़कर उसपर आधारित प्रश्नों के उत्तर देने में सक्षम होते हैं।)

पाठपरिचयः -

प्रस्तुत 'शुकनासोपदेशः' नामक यह पाठ महाकवि बाणभट्ट रचित 'कादम्बरी' के गद्यांश से लिया गया है। इस अंश का नायक राजकुमार चन्द्रापीड है, जो सत्व, शौर्य और आर्जव भावों से युक्त है। शुकनास एक अनुभवी मन्त्री हैं जो राजकुमार चन्द्रापीड को राज्याभिषेक के पूर्व वात्सल्यभाव से उपदेश देते हैं। वे उसे युवावस्था में सुलभ रूप, यौवन, प्रभुता एवं ऐश्वर्य से उद्भूत दोषों के विषय में सावधान कर देना उचित समझते हैं। इसे युवावस्था में प्रवेश कर रहे समस्त युवकों को प्रदत्त 'दीक्षान्त भाषण' कहा जा सकता है।

पाठसारांशः -

शुकनासोपदेशः कथा का नायक महाराज तारापीड का पुत्र राजकुमार चन्द्रापीड है, जो बहुत ही पराक्रमी तथा विनयशील है। युवराज चन्द्रापीड का राजतिलक के इच्छुक उनके पिता महाराज तारापीड राज्याभिषेक की आवश्यक सामग्री इकट्ठी करने का आदेश अपने सेवकों को देते हैं। राजा तारापीड का एक अनुभवी मन्त्री शुकनास राजतिलक से पहले युवराज चन्द्रापीड को समय के अनुकूल कुछ उपदेश देते हैं। प्रस्तुत पाठ में उसी उपदेश का संक्षिप्त रूप दिया गया है।

मन्त्री शुकनास चन्द्रापीड को उपदेश देते हुए कहते हैं कि - "हे पुत्र चन्द्रापीड । यद्यपि तुमने सभी शास्त्रों को पढ़ा और अच्छी तरह समझा है। तुम्हें किसी उपदेश की आवश्यकता नहीं। फिर भी युवावस्था में अज्ञानता का बढ़ना स्वाभाविक है। धन का नशा वृद्धावस्था आने पर भी शान्त नहीं होता। राज्यसुख रुपी ज्वर की नींद इतनी गहरी होती है कि कभी खुलती ही नहीं।

जीवन में जन्म से ही प्रभुत्व का होना, नवयौवन, अत्यधिक सुन्दरता और असीम शक्ति इन चार में से एक भी अनर्थ करने में सक्षम है। अगर इन चारों का समागम एकसाथ हो तो फिर अनर्थ निश्चित है। संयोग से तुम्हारे पास इन चारों का समागम है, इसलिए राज्याभिषेक से पहले मैं तुम्हें कुछ उपदेश करना चाहता हूँ ताकि राजतन्त्र के मायामोह में फँसकर तुम कहीं भटक न जाओ। युवावस्था ऐसी अवस्था है जिसमें शास्त्रजल से पवित्र की हुई बुद्धि भी कलुषित हो जाती है। अतः अपना कल्याण चाहने वाले मनुष्य को सबसे पहले लक्ष्मी (राजलक्ष्मी/धन) के विषय में विचार करना चाहिए। यह लक्ष्मी बड़ी अनर्थकारी और चंचल होती है। यह अच्छे-बुरे की पहचान भी नहीं करती और मनुष्य को गलत राह पर ले जाने में सक्षम है। राजा लोग इस लक्ष्मी के कारण ही व्याकुल रहते हैं और सभी प्रकार के दुर्गुणों और दुर्व्यसनों का शिकार हो जाते हैं। इसलिए हे राजकुमार! इस भयंकर मोह को पैदा करने वाली इस युवावस्था में कुटिल राजतन्त्र की बागडोर सँभालकर तुम ऐसा आचरण करना कि लोग तुम्हारी हँसी न उड़ाएँ, सज्जन निन्दा न करें, गुरु तुम्हें धिक्कार न दे, धूर्त लोग तुम्हें ठग न सकें, लक्ष्मी का मद तुम्हें डावांडोल न कर दे, विषयसुख तुम्हारे जीवन को नरक न बना दें।"

मन्त्री शुकनास के इस उपदेश को सुनकर चन्द्रापीड का चित्त धुल-सा गया और उसकी आँखें ज्ञान के प्रकाश से खुल गईं तथा हृदय पवित्रता के प्रकाश से भर गया। इस सारगर्भित उपदेश को पाकर चन्द्रापीड अत्यन्त प्रसन्न एवं सन्तुष्ट होकर राजभवन की ओर लौट गया। शुकनास का यह उपदेश युवावस्था की दहलीज़ पर पाँव रखने वाले हर नवयुवक के लिए अनुकरण करने योग्य है।

पाठसन्देशः -

प्रस्तुत पाठांश के माध्यम से यही सन्देश देने का प्रयास किया गया है कि अगर किसी व्यक्ति के जीवन में नवयौवन, अत्यधिक सुन्दरता, असीम शक्ति और जन्म से ही प्रभुत्व है तो उसे सावधान हो जाना चाहिए विशेषकर राजाओं को, क्योंकि इन चारों में से एक भी अनर्थ करने में सक्षम है। अगर चारों एकसाथ हों और सोच-समझकर न चला जाए तो अनर्थ निश्चित है। युवावस्था में असीम धन पाकर अच्छी बुद्धि भी कलुषित हो जाती है। अतः व्यक्ति को धन के मद में खोकर ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जिससे उसे निन्दा का पात्र न बनना पड़े, बल्कि इन चारों का सदुपयोग करते हुए अपने आचरण को सुन्दर और अनुकरणीय बनाने का प्रयास करना चाहिए।

प्रथमगद्यांशः -

एवं समतिक्रामत्सु दिवसेषु राजा चन्द्रापीडस्य यौवराज्याभिषेकं चिकीर्षुः प्रतीहारानुपकरण-सम्भारसं‌ङ्ग्रहार्थमादिदेश। समुपस्थित यौवराज्याभिषेकं च तं कदाचिद् दर्शनार्थमागत-मारूढविनयमपि शुकनासः सविस्तरमुवाच- "तात! चन्द्रापीड! विदितवेदितव्यस्याधीतसर्व शास्त्रस्य ते नाल्पमप्युपदेष्टव्यमस्ति । केवलं च निसर्गत एवातिगहनं तमो यौवनप्रभवम्। अपरिणामोपशमो दारुणो लक्ष्मीमदः। अप्रबोधा घोरा च राज्यसुखसन्निपातनिद्रा भवति, इत्यतः विस्तरेणाभिधीयसे।

गर्भे श्वरत्वमभिनवयौवनत्वम्, अप्रतिमरूपत् वममानुषशक्तित्वञ्चेति महतीयं खल्वनर्थ परम्परा। यौवनारम्भेचप्रायः शास्त्रजलप्रक्षालन - निर्मलापि कालुष्यमुपयाति बुद्धिः। नाशयति च पुरुषमत्यासङ्गो विषयेषु।

भवादृशा एव भवन्ति भाजनान्युपदेशानाम्। अपगतमले हि मनसि विशन्ति सुखेनो-पदेशगुणाः। हरति अतिमलिनमपि दोषजातं गुरूपदेशः गुरूपदेशश्च नाम अखिलमलप्रक्षालनक्षमम् अजलं स्नानम्। विशेषेण तु राज्ञाम्। विरला हि तेषामुपदेष्टारः । राजवचनमनुगच्छति उपदिश्यमानमपि ते न शृण्वन्ति। अवधीरयन्तः खेदयन्ति हितोपदेशदायिनो गुरून्। जनो भयात्।

पदार्थाः -

चिकीर्षुः - करने की इच्छावाला

विनय - विशिष्ट नय (नीति)

प्रतीहारान् - द्वारपालों को

उपकरणसम्भारसङ्ग्रहार्थम् – आवश्यक सामग्री

निसर्गतः - स्वाभाविक रूप से।

अपरिणामोपशमः - वृद्धावस्था में भी न शान्त होने वाला।

विदितवेदितव्यस्य - जिसने ज्ञातव्य को जान लिया है।

गर्भेश्वरत्वम् - जन्म से प्राप्त प्रभुत्व

भवादृशा - आप जैसे ही

अपगतमले - दोषरहित होने पर, अपगतः मलः यस्मात् तत् अपगतमलम् तस्मिन् अपगतमले (पञ्चमी तत्पुरुष)

उपदेष्टारः - उपदेश देने वाले

अवधीरयन्तः - तिरस्कृत करते हुए

अधीतसर्वशास्त्रस्य - जिसने सभी शास्त्रों का अध्ययन कर लिया है।

व्याकरणकार्यम्

अधीतसर्वशास्त्रस्य = अधीतं सर्वं शास्त्रं येन सः, तस्य (बहुब्रीहि समास)।

यौवनप्रभवम् = यौवनेन प्रभवम् (तृतीया तत्पुरुष)।

उपकरणसम्भारः = उपकरणानाम् सम्भारः (षष्ठी-तत्पुरुष)

अपरिणामोपशमः = न परिणामोपशमः अपरिणामोपशमः (नञ् तत्पुरुष)।

विदितवेदितव्यस्य = विदितं वेदितव्यं येन असौ विदितवेदितव्यः तस्य (बहुव्रीहि)

विदितम् = विद् + क्त

वेदितव्यम् = विद् + तव्यत्

उपकरणम् = उप + कृ + ल्युट्

अनुवादः/भावार्थः -

इस प्रकार कुछ दिन बीत जाने पर राजा तारापीड ने राजकुमार चन्द्रापीड को राजतिलक करने की इच्छा से द्वारपालों को आवश्यक सामग्री-समूह को संग्रह करने का आदेश दिया। जिसके राजतिलक का समय निकट ही आ चुका था, जो कदाचित् मन्त्री शुकनास का दर्शन करने के लिए आया था-ऐसे उस विनयसम्पन्न (विशेष नीति से युक्त) राजकुमार चन्द्रापीड को और भी अधिक विनयशील बनाने की इच्छा वाले शुकनास ने विस्तारपूर्वक कहा-

हे बेटा, चन्द्रापीडा जो कुछ विषय जानना चाहिए, वह सब तुम जानते हो। तुम वेदादि सब शास्त्रों को पढ़े हुए हो, इसलिए तुम्हें थोड़ी भी उपदेश देने की आवश्यकता नहीं है। केवल यही कहना है कि युवावस्था में स्वभाव से ही जो अन्धकार पैदा होता है, वह अन्धकार अत्यन्त घना (घोर) होकर रहता है। धनसम्पत्ति का (नशा) मद ऐसा भयानक होता है कि वह आयु के परिणाम अर्थात् वृद्धावस्था में भी शान्त नहीं होता। राज्यसुख रूपी सन्निपात ज्वर से उत्पन्न निद्रा इतनी गहरी होती है कि प्रबोध (जागरण) ही नहीं हो पाता-इसीलिए तुम्हें विस्तारपूर्वक कहा जा रहा है।

जन्म से ही अधिक सम्पन्नता, नया यौवन, अनुपम सौन्दर्य और अमानुषी शक्ति का होना-यह महान् अनर्थ की परम्परा (श्रृंखला) है। युवावस्था के प्रारम्भ में मनुष्य की बुद्धि शास्त्ररूपी जल से धुलने के कारण स्वच्छ होती हुई भी प्रायः दोषपूर्ण हो जाती है। और विषयों में अति आसक्ति मनुष्य का विनाश कर देती है।

आप जैसे व्यक्ति ही उपदेशों के पात्र होते है निर्दोष मन में ही उपदेश के गुण सुखपूर्वक प्रवेश करते हैं। गुरु का उपदेश अत्यन्त मलिन दोषसमूह को भी दूर कर देता है। गुरु का उपदेश सम्पूर्ण मलों को धोने में समर्थ जलरहित स्नान है। (अर्थात जैसे पानी से स्नान करने पर बाहर के सब मैल धुल जाते हैं, वैसे ही गुरु के उपदेश से सब आन्तरिक दोष दूर हो जाते हैं।) ये उपदेश राजाओं के लिए तो विशेष रूप से लाभकारी होते है; क्योंकि उन्हें उपदेश देने वाले बहुत कम लोग होते हैं। लोग प्रायः भय के कारण राजा के वचनों का ही अनुकरण करते हैं। उपदेश देते हुए (विद्वान्) को भी वे सुनते नहीं हैं। वे हितकारी उपदेश करने वाले गुरुओं का तिरस्कार करते हुए उन्हें खिन्न कर देते हैं।

पाठांशाधारिताः प्रश्नाः

1. एकपदेन उत्तरत-

क. 'शुकनासोपदेशः' इति पाठः कस्मात् ग्रन्थात् सङ्कलितः ?

उत्तर- कादम्बरीतः

 

ख. चन्द्रापीडस्य पितुः नाम किम् ?

उत्तर- तारापीडः

ग. शास्त्रजलप्रक्षालन कदा कालुष्यमुपयाति ? निर्मलापि बुद्धिः

उत्तर- यौनारम्भे

घ. अजलं स्नानं किम् ?

उत्तर- गुरूपदेशः

2. पूर्णवाक्येन उत्तरत-

क. राज्यसुखसन्निपातनिद्रा कीदृशी भवति ?

उत्तर- राज्यसुखसन्निपातनिद्रा अप्रबोधा घोरा च भवति ।

ख. केषाम् उपदेष्टारः हि विरलाः ?

उत्तर- राज्ञाम् उपदेष्टारः हि विरलाः।

3. बहुविकल्पीयाः प्रश्नाः

उचितविकल्पं चिनुत-

(i) लक्ष्मीमदः कीदृशः ?

क. उपशमः

ख. अपरिणामः

ग. अपरिणामोपशमः

घ. सुखावहः।

(ii) चन्द्रापीडं कः उपदिशति?

क. शुकनासः

ख. शुकः

ग. तारापीडः

घ. बृहस्पतिः।

(iii) कीदृशे मनसि उपदेशगुणाः प्रविशन्ति।

क. मलिने

ख. अपगतमले

ग. छलयुक्ते

घ. छलान्विते।

(iv) 'सम्भारः' इति पदे कः उपसर्गः ?

क. स

ख. सम

ग. आ

घ. अव

द्वितीयगद्यांशः -

आलोकयतु तावत् कल्याणाभिनिवेशी लक्ष्मीमेव प्रथमम्। न ह्येवं-विधमपरिचितमिह जगति किञ्चिदस्ति यथेयमनार्या। लब्धापि खलु दुःखेन परिपाल्यते। परिपालितापि प्रपलायते। न परिचयं रक्षति। नाभिजनमीक्षते । न रूपमालोकयते। न कुलक्रममनुवर्तते। नशीलं पश्यति। न वैदग्ध्यं गणयति। न श्रुतमाकर्णयति । न धर्ममनुरुध्यते। न त्यागमाद्रियते। न विशेषज्ञतां विचारयति। नाचारं पालयति। न सत्यमवबुध्यते। पश्यत एव नश्यति । सरस्वतीपरिगृहीतं नालिङ्गति जनम्। गुणवन्तं न स्पृशति। सुजनं न पश्यति। शूरं कण्टकमिव परिहरति। दातारं दुःस्वप्नमिव न स्मरति। विनीतं नोपसर्पति। तृष्णां संवर्धयति। लघिमानमापादयति। एवंविधयापि चानया कथमपि दैववशेन परिगृहीताः विक्लवाः भवन्ति राजानः, सर्वाविनयाधिष्ठानतां च गच्छन्ति।

पदार्थाः

कल्याणाभिनिवेशी = मङ्गल के अभिलाषी

भवादृशा = आप जैसे ही, भवत् दृश् + क्रिप्, प्रथमा विभक्ति

प्रक्षालित इव = पूर्णतया धोये हुए। प्रक्षाल + क्त, प्रथम पुरुष एकवचन।

अहर्निशम् = दिन रात

उद्भावयति = प्रकट करता है। उद् + भू + णिच् + लट्, प्रथम पुरुष एकवचन।

विक्लवाः = विकल

यौवनप्रभवम् = युवावस्था के कारण उत्पन्न।

सर्वाविनयाधिष्ठानताम् = सभी प्रकार के अविनयों (दुष्कृत्यों, दुष्ट आचरणों) के निवास स्थान को

परिपाल्यते = रखी जा सकती है

प्रपलायते = भाग जाती है।

वैदग्धयम् = पाण्डित्य को

अनुरुध्यते = अनुरोध करती है

अवबुध्यते = जानी जाती है, पहचानी जाती है।

नोपसर्पति = समीप नहीं जाती

संवर्धयति = बढ़ाती है।

लधिमानमापादयति = निम्नता प्रदान करती है

व्याकरणकार्यम्

सर्वाविनयाधिष्ठानताम् = सर्वेषाम् अविनयानाम् अधिष्ठानताम् (षष्ठी-तत्पुरुष)।

कल्याणाभिनिवेशी = कल्याणे अभिनिवेष्टुं शीलं यस्य सः (बहुब्रीहि)।

लघिमानम् = लघोर्भावः लघिमा (लघु + इमनिच्)

अनुवादः/भावार्थः

हे चन्द्रापीड ! तुम कल्याण (मंगल) के लिए प्रयत्नशील हो, इसलिए पहले लक्ष्मी को ही विचार कर देखो। इस जैसी अपरिचित इस संसार में अन्य कोई वस्तु नहीं जैसी यह अनार्या लक्ष्मी है। इस लक्ष्मी को प्राप्त कर लेने पर भी, इसका महाकष्ट से पालन (रक्षण) करना पड़ता है और यह लक्ष्मी न परिचय की परवाह करती है, न कुलीन की ओर देखती है, न सौन्दर्य (रूप) को देखती है, न कुल-परम्परा का अनुगमन करती है। न सच्चरित्र को देखती है, न कुशलता (पाण्डित्य) की परवाह करती है। न शास्त्रज्ञान को सुनती है, न धर्म से रोकी जाती है, न त्याग (दान) को आदर देती है। न विशेष ज्ञान का विचार करती है। न सदाचार का पालन करती है। न सत्य को जानती है। यह देखते ही देखते नष्ट हो जाती है। सरस्वती से युक्त (विद्यावान्, विद्वान्) मनुष्य को यह ईर्ष्यावश ही मानो आलिंगन (स्वीकार) नहीं करती है। शौर्य आदि गुणों वाले व्यक्ति का स्पर्श नहीं करती है। सज्जन की ओर यह देखती भी नहीं है। शूरवीर को काँटे के समान छोड़ देती है। दानी का, दुःस्वप्न के समान स्मरण भी नहीं करती है। विनम्र व्यक्ति के पास फटकती भी नहीं है। यह तृष्णा (लालसा) को बढ़ाती है। मनुष्य को छोटा (तुच्छ) बना देती है। ऐसी दुराचारिणी इस लक्ष्मी द्वारा जैसे-तैसे भाग्य के कारण, पकड़े गए (जकड़े गए) राजा लोग, अत्यन्त व्याकुल बने रहते हैं और सब प्रकार के दुराचारों (दुष्कृत्यों) के निवास स्थान को प्राप्त कर लेते हैं।

पाठांशाधारिताः प्रश्नाः-

1. एकपदेन उत्तरत-

क. लब्धापि खलु दुःखेन का परिपाल्यते ?

उत्तर- लक्ष्मीः

ख. लक्ष्मीः कं न स्पृशति ?

उत्तर- गुणवन्तं

ग. लक्ष्मीः कण्टकमिव कं परिहरति ?

उत्तर- शूरं

घ. का तृष्णां संवर्धयति ?

उत्तर- राजलक्ष्मीः

2. पूर्णवाक्येन उत्तरत-

क. लक्ष्मीः दातारं किमिव न स्मरति ?

उत्तर- लक्ष्मीः दातारं दुःस्वप्नमिव न स्मरति।

ख. का न धर्ममनुरुध्यते ।

उत्तर- लक्ष्मीः धर्मं न अनुरुध्यते।

3. बहुविकल्पीयाः प्रश्नाः

उचितविकल्पं चिनुत-

(i) 'कण्टकमिव' अत्र अव्ययपदं किम् ?

क. एव

ख. अव

ग. इव

घ. मिव

(ii) ----------- एव नश्यति।

क. हसत

ख. खादत

ग. लिखत

घ. पश्यत

(iii) लक्ष्मीः परिचयं न --------

क. रक्षति

ख. वदति

ग. हसति

घ. गच्छति

(iv) लब्धापि दुःखेन का परिपाल्यते?

क. लक्ष्मीः

ख. विद्या

ग. गौः

घ. स्त्री।

तृतीयगद्यांशः -

गुणपक्षमध्यारोपयद्भिः प्रतार्यमाणा अपरे तु स्वार्थनिष्पादनपरैः दोषानपि प्रतारणकुशलैर्धूर्तेः वित्तमदमत्तचित्ता सर्वजनोपहास्यतामुपयान्ति। न मानयन्ति मान्यान्, जरावैक्लव्यप्रलपितमिति पश्यन्ति वृद्धोपदेशम्। कुप्यन्ति हितवादिने। सर्वथा तमभिनन्दन्ति, तं संवर्धयन्ति, तस्य वचनं शृण्वन्ति, तं बहु मन्यन्ते योऽहर्निशम् अनवरतं विगतान्यकर्त्तव्यः स्तौति, यो वा माहात्म्यमुद्भावयति।

तदति कुटिलचेष्टादारुणे राज्यतन्त्रे, अस्मिन् महामोहकारिणि च यौवने कुमार! तथा प्रयतेथाः यथा नोपहस्यसे जनैः, न निन्द्यसे साधुभिः, न धिक्क्रियसे गुरुभिः, नोपालभ्यसे सुहृद्भिः, न वञ्च्यसे धूर्तेः, न विडम्ब्यसे लक्ष्म्या, नाक्षिप्यसे विषयैः, नापह्रियसे सुखेन।

इदमेव च पुनः पुनरभिधीयसे विद्वांसमपि सचेतसमपि, महासत्त्वमपि, अभिजातमपि, धीरमपि, प्रयत्नवन्तमपि पुरुषं दुर्विनीता खलीकरोति लक्ष्मीरित्येता-वदभिधायोपशशाम।

प्रक्षालित चन्द्रापीडस्ताभिरुपदेशवाग्भिः इव, उन्मीलित इव, स्वच्छीकृत इव, पवित्रीकृत इव, उद्भासित इव, प्रीतहृदयो स्वभवनमाजगाम ।

पदार्थाः

अध्यारोपयद्धिः = आरोपित करने वाले।

प्रतारणकुशलैः = ठगने मे कुशल

जरावैक्लव्यप्रलपितम् = वृद्धावस्था की विकलता से निरर्थक वचन के रूप में

प्रयतेथाः = प्रयत्न करिये

अभिजातम् = कुलीन को

अभिधीयसे = कहा जा रहा है।

खलीकरोति = दुष्ट बना देती है।

उपशशाम = चुप हो गये

प्रक्षालित इव = पूर्णतया धोये हुए

अहर्निशम् = दिन-रात।

उ‌द्भावयति = प्रकट करता है।

नोपालभ्यसे = उलाहना न दिये जाओ।

नोपहस्यसे जनैः = लोगों के द्वारा उपहास के पात्र न बनो।

महामोहकारिणि = अत्यन्त मोह रूप अज्ञान अन्धकार को पैदा करने वाले

व्याकरणकार्यम्

प्रतारणकुशलैः = प्रतारणासु कुशलाः प्रतारणकुशलाः तैः, सप्तमी तत्पुरुष।

प्रतार्यमाणाः = प्र + तृ + कर्मणि यक् + शानच् + प्रथमा विभक्ति एकवचन।

जरावैक्लव्यप्रलपितम् = जरसः वैक्लव्यं = जरावैक्लव्यम् (षष्ठी तत्पुरुष) तेन प्रलपितम्।

विगतान्यकर्तव्यः = विगतम् अन्यकर्तव्यं यस्य सः (बहुव्रीहि)।

अभिजातम् = प्रशस्तं जातं यस्य स अभिजातः तम् अभिजातम्, (बहुव्रीहि समास)।

अनुवादः/भावार्थः-

कुछ राजा लोग तो स्वार्थ सिद्ध करने में तत्पर, दोषों में गुणों को आरोपित करने वाले, ठग-विद्या में अतिनिपुण, धूर्तबुद्धि लोगों के द्वारा ठगे जाते हुए धन के मद से उन्मत्त चित्त वाले होकर सब लोगों की हँसी के पात्र बनते हैं। वे मानवीय लोगों का सम्मान नहीं करते। वृद्धों के उपदेश को, यह मानकर देखते हैं कि यह तो उनका बुढ़ापे में बड़बड़ाना है। हितकारी वचन बोलने वाले पर क्रोध करते हैं। सभी प्रकार से उसका वे अभिनन्दन करते हैं, उसे ही सहायता करके बढ़ाते हैं; उसका ही वचन हैं, जो दिन-रात निरन्तर अन्य सब काम छोड़कर, उनकी प्रशंसा करता है अथवा, जो उनकी महिमा को प्रकट करता है।

हे राजकमार चन्द्रापीड ! इसीलिए अत्यन्त कुटिल चेष्टाओं से युक्त इस कठोर राज्यतन्त्र में और इस महामूर्छा पैदा करने वाली युवावस्था में तुम वैसा प्रयत्न करना जिससे तुम जनता की हँसी के पात्र न बनो। सज्जन तुम्हारी निन्दा न करें। गुरु लोग तुम्हें धिक्कार न कहें। मित्र लोग तुम्हें उपालम्भ (लाम्भा, उलाहना) न दें। धूर्त तुम्हें ठग न सकें। लक्ष्मी तुम्हारे साथ धोखा न कर सके। विषयों से तुम आक्षिप्त न हो जाओ अर्थात् तुम विषयासक्त न बन सको। सुख तुम्हारा अपहरण न कर ले अर्थात् तुम राजसुख में डूब कर कर्तव्य से विमुख न हो जाओ।

यही उपदेश बार-बार दोहराया (कहा) जाता है कि विद्वान् को भी, ज्ञानवान् को भी, महाबलवान् को भी, कुलीन को भी, धैर्यवान् को भी और पुरुषार्थी मनुष्य को भी यह दुराचारिणी लक्ष्मी दुष्ट बना देती है। इतना कहकर वे (मन्त्री शुकनास) शान्त (चुप) हो गए।

राजकुमार चन्द्रापीड इन उपदेश वचनों के कारण मानो पूर्णतया धुला हुआ-सा, मानो नींद से खुली हुई आँखों वाला सा, मानों स्वच्छ किया हुआ-सा, मानो पवित्र किया हुआ-सा, मानो चमकाया हुआ-सा तथा प्रसन्नहृदय होकर अपने भवन की ओर आ गया।

पाठांशाधारिताः प्रश्नाः-

1. एकपदेन उत्तरत-

क. प्रीतहृदयो स्वभवनं कः आजगाम ?

उत्तर- चन्द्रापीडः

ख. जरावैक्लव्यप्रलपितमिति किं पश्यन्ति ?

उत्तर- वृद्धोपदेशं

ग. 'विगतान्यकर्तव्यः' इति पदे कः समासः ?

उत्तर- बहुब्रीहि

घ. के मान्यान् न मान्यन्ति ?

उत्तर- वित्तमदमत्तचित्ताः

2. पूर्णवाक्येन उत्तरत-

क. राज्यतन्त्रः कीदृशः ?

उत्तर- राज्यतन्त्रः अति कुटिलचेष्टादारुणः।

ख. वित्तमदमत्तचित्ताः कम् अभिनन्दन्ति ?

उत्तर- वित्तमदमत्तचित्ताः तमभिनन्दन्ति योऽहर्निशम् विगतान्यकर्त्तव्यः स्तौति।

3. बहुविकल्पीयाः प्रश्नाः

उचितविकल्पं चिनुत-

(i) अभिजातम् इति पदे कः उपसर्गः ?

क. अ

ग. आ

ख. अव

घ. अभि

(ii) 'प्रतारणकुशलैः' अत्र का विभक्तिः ?

क. तृतीया

ख. पञ्चमी

ग. प्रथमा

घ. षष्ठी

(iii) 'अध्यारोपयद्धिः' अत्र कः उपसर्गः ?

क. अधि

ख. अधी

ग. अ

घ. आ

(iv) इदम् + एव = -------

क. इदमेव

ग. इदेव

ख. इदम्

घ. इद्येवा

अभ्यास

1. संस्कृतेन उत्तरं दीयताम् ।

क. लक्ष्मीमद: की दृशः?

उत्तर :- लक्ष्मीमद: अपरिणामोपशमः दारुणः अस्ति ।

ख. चन्द्रापीडं कः उपदिशति?

उत्तर :- चन्द्रापीडं मंत्री शुकनाश: उपदिशति ।

ग. अनर्थपरम्परया: किं कारणम् ।

उत्तर :- अनर्थपरम्पराया: कारणाणि - '1. गर्भेश्वरत्वम्, 2. अभिनवयोवनत्वम् 3. अप्रतिमरूपत्वम्, 4. अमानुषशक्तित्वञ्चेति ।

घ. कीदृशे मनसि उपदेशगुणाः प्रविशन्ति ?

उत्तर :- अपगतमले मनसि उपदेशगुणाः प्रविशन्ति ।

ङ. लब्धापि दुःखेन का परिपाल्यते ?

उत्तर :- लब्धापि दुःखेन लक्ष्मीः परिपाल्यते ।

च. केषाम् उपदेष्टारः विरला: सन्ति ?

उत्तर :- राज्ञां उपदेस्टारः विरला: सन्ति ।

छ . लक्ष्म्या परिगृहीता: राजानः कीदृशाः भवन्ति ?

उत्तर :- लक्ष्म्या परिगृहीता: राजानः विक्लवा: भवन्ति ।

ज. वृद्धोपदेशं ते राजानः किमिति पश्यन्ति ?

उत्तरः- वृद्घोपदेशं ते राजानः जरावैक्लव्यप्रलपितं इति पश्यन्ति ।

(2) विशेषणानि विशेष्यैः सह योजयत ।

विशेषणम्                 विशेष्यम्

क. समतिक्रामत्सु ------दिवसेषु

ख. अधीतशास्त्रस्य-------ते

ग. दारुणो---------------लक्ष्मीमदः

घ. गहनं तमः----------यौवनप्रभवम्

ङ. अतिमलिनम्----------दोषजातम्

च . सचेतसम्---------विद्वांसम्

(3) अधोलिखित पदानि स्वरचित - संस्कृत वाक्येषुप्रयुधवम्।

सङग्रहार्थम् - सदगुणानां संग्रहार्थं सदा यत्नः करणीयः

समुपस्थितम् - राजा समुपस्थितं सेवकं शस्त्रं आनेतु आदिशत्

विनियम् - विद्या विनयं ददाति ।

परिणमयति - लक्ष्मीमदः सज्जनमपि दुष्टभावेषु परिणमयति ।

श्रृण्वन्ति - राजानः गुरुपदेशान् न श्रृण्वन्ति ।

स्पृशति - लक्ष्मीः गुणवन्तं न स्पृशति ।

(4) अधोलिखितानां पदानां सन्धि - विच्छेदं कुरुत ।

क. एवातिगहनम् ---- एव + अतिगहनम्

ख . गरमेश्वरत्वम्---  गर्भ + ईश्वरत्वम्

ग. गुरुपदेश: ---  गुरु + उपदेशः

घ. ह्यवम --- हि + एवम्

ङ. नाभिजनम् -- न + अभिजनम्

. नोपसर्पति --- न + उपसर्पति

(5) प्रकृति - प्रत्ययविभागः क्रियताम् ।

शब्द:                    प्रकृतिः                          प्रत्यय:

क. चिकीर्षुः           कृ (धातु)                         सन् +उ

ख. उपदेष्टव्यम्       उप (उपसर्ग) दिश् (धातु)    तत्यत्

ग. ईक्षते             ईक्ष् (धातु) (आत्मने पद)          

घ. बुध्यते           बुध् धातु)(आत्मने पद)            

ड. निन्द्यसे            निन्द (धातु)                     थास (से)

च. उपशशाम       उप (उपसर्ग) सम (धातु)     

(6) समास विग्रहं कुरुत।

क. अमानुषशक्तित्वम् - न मानुषशक्तित्वम् (नञ् तत्पुरुष समास)

ख. अत्यासङ्ग -- अतिशयेन आसङ्ग ( उपपद तत्पुरुष समास)

ग. अनार्या ---- न आर्या (नञ् तत्पुरुष समास)

घ. स्वार्थनिष्पादनपरै: --- स्वार्थस्य निष्पादनै परैः (षष्ठी तत्पुरुष समास)

ङ. अहर्निशम् ---- अहश्च निशा च तयों: समाहारः (द्वन्द्व समास)

च. वृद्धोपदेशम् ----वृद्धानां उपदेशः तं (षष्ठी तत्पुरुष समास)

(7) रिक्तस्थानानि पूरयत ।

क. लक्ष्मीः परिचयं न रक्षति ।

. दातारं दुःस्वप्रमिव न स्मरति ।

ग. सरस्वतीपरिगृहीतं नालिङ्गति

घ. उपदिश्यमानपि राजानः न श्रृण्वन्ति ।

ङ. अवधीरयन्तः खेदयन्ति हितोपदेशदायिनो गुरुन् ।

च. तथा प्रयतथाः यथा नोपहस्यसे जनः ।

छ.चन्द्रापीडः प्रीतहृदयो स्वभवनं आजगाम ।

(8) सप्रसगं हिन्दीभाषया व्याख्या कार्या -

(क) गर्भेश्वरत्वभिनवयौवनत्वमप्रतिमरूपत्वममानुषशक्तित्वञ्चेति महतीयं खल्वनर्थपरम्परा।

व्याख्या- प्रस्तुत पंक्ति शुकनासोपदेश नामक पाठ से ली गई है। यह पाठ संस्कृत के महान् गद्यकार बाणभट द्वारा रचित कादम्बरी से लिया गया है। प्रस्तुत पंक्ति में मन्त्री शुकनास युवराज चन्द्रापीड को उपदेश करते हुए अनर्थ के चार कारणों की ओर ध्यान दिला रहे हैं। मन्त्री शुकनास कहते है कि अनर्थं की परम्परा के चार कारण हैं -

क. जनम से ही प्रभुता ।

ख. नया यौवन ।

ग. अति सुन्दर रूप ।

घ. अमानुषी शक्ति।।

इन चारों में से मनुष्य का विनाश करने के लिए कोई एक कारण भी पर्याप्त होता है। जिसके जीवन में ये चारों ही कारण उपस्थित हों, उसके विनाश को कौन रोक सकता है? इसीलिए मनुष्य को घोर अनर्थ से बचने के लिए उक्त चारों वस्तु पाकर भी कभी अहंकार नहीं करना चाहिए।

(ख) हरति अतिमलिनमपि दोषजातं गरूपदेशः।

व्याख्या- प्रस्तुत पंक्ति शुकनासोपदेश नामक पाठ से ली गई है। यह पाठ संस्कृत के महान् गद्यकार बाणभट्ट द्वारा रचित कादम्बरी से लिया गया है। प्रस्तुत पंक्ति में शुकनास युवराज चन्द्रापीड को गुरु के उपदेश का महत्त्व समझा रहे हैं। मन्त्री शुकनास कहते हैं कि गुरु का उपदेश मनुष्य के जीवन में बहुत अधिक उपयोगी तथा हितकारी होता है। मनुष्य में यदि अत्यधिक गहरे दोषों का समूह हो तो गुरु का उपदेश उन गहरे से गहरे दोषों को भी दूर कर देता है और उन दोषों के स्थान पर अति उत्तम गुण प्रवेश कर जाते हैं। मनुष्य का जीवन उज्ज्वल हो जाता है। सब जगह ऐसे व्यक्ति का यश फैलता है, इसीलिए गुरु का उपदेश प्रत्येक मनुष्य के लिए परम कल्याणकारी तथा आवश्यक है।

(ग) विद्वांसमपि सचेतसमपि, महासत्त्वमपि, अभिजातमपि, धीरमपि, प्रयत्न-वन्तमपि पुरुषं दुविनीता खलीकरोति लक्ष्मीरिति।

व्याख्या- प्रस्तुत पंक्ति शुकनासोपदेश नामक पाठ से ली गई है। यह पाठ संस्कृत के महान् गद्यकार बाणभट्ट द्वारा रचित कादम्बरी से लिया गया है। प्रस्तुत पंक्ति में मन्त्री शुकनास लक्ष्मी अर्थात् धन के गुणों पर प्रकाश डाल रहे हैं। मन्त्री शुकनास कहते हैं कि लक्ष्मी इतनी शक्तिशाली होती है कि अत्यन्त जागरूक रहने वाले विद्वान्, महान् बलशाली, उच्चकुल में उत्पन्न, धैर्यशील तथा अत्यन्त परिश्रमी मनुष्य को भी यह लक्ष्मी दुष्ट आचरण वाला बना देती है। शुकनास के कहने का तात्पर्य है कि जिस मनुष्य के पास धन होता है, वह धन के अहंकार में कर्तव्य-अकर्तव्य के विवेक को खो बैठता है और कुमार्गगामी हो जाता है।

JCERT/JAC REFERENCE BOOK

विषय सूची

अध्याय-1 विद्ययामृतमश्नुते (विद्या से अमृतत्व की प्राप्ति होती है)

अध्याय-2 रघुकौत्ससंवादः

अध्याय-3 बालकौतुकम्

अध्याय-4 कर्मगौरवम्

अध्याय-5 शुकनासोपदेशः (शुकनास का उपदेश)

अध्याय-6 सूक्तिसुधा

अध्याय-7 विक्रमस्यौदार्यम् (विक्रम की उदारता)

अध्याय-8 भू-विभागाः

अध्याय-9 कार्यं वा साधयेयं, देहं वा पातयेयम् (कार्य सिद्धकरूँगा या देह त्याग दूँगा)

अध्याय-10 दीनबन्धु श्रीनायारः

अध्याय-11 उद्भिज्ज परिषद् (वृक्षों की सभा)

अध्याय-12 किन्तोः कुटिलता (किन्तु शब्द की कुटिलता)

अध्याय-13 योगस्य वैशिष्ट्यम् (योग की विशेषता)

अध्याय-14 कथं शब्दानुशासनम् कर्तव्यम् (शब्दों का अनुशासन(प्रयोग) कैसे करना चाहिए)

JCERT/JAC प्रश्न बैंक - सह - उत्तर पुस्तक (Question Bank-Cum-Answer Book)

विषयानुक्रमणिका

क्रम.

पाठ का नाम

प्रथमः पाठः

विद्ययाऽमृतमश्नुते

द्वितीयः पाठः

रधुकौत्ससंवादः

तृतीयः पाठः

बालकौतुकम्

चतुर्थः पाठः

कर्मगौरवम्

पंचमः पाठः

शुकनासोपदेशः

षष्ठः पाठः

सूक्तिसुधा

सप्तमः पाठः

विक्रमस्यौदार्यम्

अष्टमः पाठः

भू-विभागाः

नवमः पाठः

कार्यं वा साधयेयं देहं वा पातयेयम्

दशमः पाठः

दीनबन्धुः श्रीनायारः

एकादशः पाठः

उद्भिज्ज -परिषद्

द्वादशः पाठः

किन्तोः कुटिलता

त्रयोदशः पाठः

योगस्य वैशिष्टयम्

चतुर्दशः पाठः

कथं शब्दानुशासनं कर्तव्यम्

JAC वार्षिक माध्यमिक परीक्षा, 2023 प्रश्नोत्तर

Sanskrit Solutions शाश्वती भाग 2













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