12th Sanskrit 1. विद्ययामृतमश्नुते JCERT/JAC Reference Book

12th Sanskrit 1. विद्ययामृतमश्नुते JCERT/JAC Reference Book

12th Sanskrit 1. विद्ययामृतमश्नुते JCERT/JAC Reference Book

1. विद्ययामृतमश्नुते

अधिगम-प्रतिफलानि

संस्कृतश्लोकान् उचितबलाघातपूर्वकं छन्दोंऽनुगुणम् उच्चारयति ।

(संस्कृत श्लोकों का छन्दानुसार उचित लय के साथ उच्चारण करते हैं।)

श्लोकान्वयं कर्तुं समर्थः अस्ति ।

(श्लोकों का अन्वय करने में समर्थ होते हैं।)

तेषां भावार्थं प्रकटयति । (उनके भावार्थ प्रकट करते हैं।)

पाठपरिचयः -

प्रस्तुत पाठ ईशावास्योपनिषद् से संकलित है। 'ईशावास्यम्' पद से आरम्भ होने के कारण इसे ईशावास्योपनिषद् की संज्ञा दी गयी है। यह उपनिषद यजुर्वेद की माध्यन्दिन एवं काण्व संहिता का 40वाँ अध्याय है, जिसमें 18 मन्त्र हैं। इस संकलन के आद्य दो मन्त्रों में ईश्वर की सर्वत्र विद्यमानता को दर्शाते हुए, कर्तव्य भावना से कर्म करने एवं त्यागपूर्वक संसार के पदार्थों का उपयोग एवं संरक्षण करने का निर्देश है। आत्मस्वरूप ईश्वर की व्यापकता को जो लोग स्वीकार नहीं करते हैं, उनके अज्ञान को तृतीय मन्त्र में दर्शाया गया है। चतुर्थ मन्त्र में चैतन्य स्वरूप, स्वयं प्रकाश एवं विभु सर्वव्यापक आत्म तत्त्व का निरूपण है। पञ्चम एवं षष्ठ मन्त्रों में अविद्या अर्थात् व्यावहारिक ज्ञान एवं विद्या अर्थात् आध्यात्मिक ज्ञान पर सूक्ष्म चिन्तन निहित है। अन्तिम मन्त्र व्यावहारिक ज्ञान से लौकिक अभ्युदय एवं अध्यात्मज्ञान से अमरता की प्राप्ति को बतलाता है।

पाठसन्देशः -

इस पाठ्यांश के माध्यम से ईश्वर की सर्वव्यापकता को दर्शाते हुए मनुष्य को कर्तव्य भावना से कर्म करते हुए त्यागपूर्ण जीवन शैली अपनाने के लिए प्रेरित किया गया है और यह बताने का प्रयास किया गया है कि लौकिक एवं अध्यात्म विद्या एक दूसरे की पूरक है तथा मानव जीवन की परिपूर्णता एवं सर्वाङ्गीण विकास में समान रूप से महत्त्व रखती हैं।

श्लोकांशः -

ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।

तेनं त्यक्तेनं भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धन॑म् ॥1 ॥

 

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छ्रतं समाः।

एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरें ॥2॥

 

असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽऽवृताः।

ताँस्ते प्रेत्याभिंगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः ॥3॥

 

अन्वयः - जगत्यां यत् किं च जगत् अस्ति इदं सर्वम् ईशा वास्यम्।

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः ।

कस्यस्विद् धनं मा गृधः ॥1॥

 

इह कर्माणि कुर्वन् एव शतं समाः जिजीविषेत् ।

एवं त्वयि नरे इतः न अन्यथा अस्ति येन कर्म न लिप्यते ॥2॥

 

असुर्याः अन्धेन तमसा आवृत्ताः नाम ते लोकाः सन्ति।

ये के च जनाः आत्महनः सन्ति ते प्रेत्य तान् अभिगच्छन्ति ॥3॥

पदार्थाः/व्याकरणकार्यम् -

ईशावास्यम् - ईशस्य ईशेन वा आवास्याम्। ईश के रहने योग्य अर्थात् ईश्वर से व्याप्त।

जगत् - गच्छति इति जगत्। सततं परिवर्तमानः प्रपञ्चः। सतत परिवर्तनशील संसार।

भुञ्जीथाः - भोगं कुरु। भोग करो। विषय वस्तु का ग्रहण करो। भुज् (पालने अभ्यवहारे च) धातु, आत्मनेपदी, विधिलिङ्, मध्यम पुरुष एकवचन।

मा गृधः लोलुपः मा भव। लोलुप मत हो। लोभ मत करो। गृध्र (अभिकांक्षायाम्)

धातु- लङ् लकार, मध्यम पुरुष एकवचन में 'अगृधः' रूप बनता है।

व्याकरण नियमानुसार निषेधार्थक अव्यय 'माङ्' के योग में 'अगृधः' के आरम्भ में विद्यमान 'अ' कार का लोप होता है।

कस्यस्विद् - किसी का। इस के समानार्थक पद हैं- कस्यचित् कस्यचन। अव्यय।

जिजीविषेत्- जीवितुम् इच्छेत्। जीने की इच्छा करें। जीव (प्राणधारणे) धातु, इच्छार्थक सन् प्रत्यय से विधि लिङ। जीव + सन् + विधिलिङ।

कुर्वन् - करते हुए ही। कृ + शतृ पुंलिङ्ग, प्रथमा विभक्ति, एकवचन

कुर्वन् + एव।

कर्म न लिप्यते -कर्म लिप्त नहीं होता। लिप (उपदेहे) धातु, लट्, कर्मणि प्रयोग। 'कर्म

नरे न लिप्यते-यह एक विशिष्ट वैदिक प्रयोग है। तुलना कीजिये - 'लिप्यते

न स पापेन।' (भगवद्गीता - 5.10)

असुर्याः - प्रकाशहीन। अथवा असुर सम्बन्धी। अविद्यादि दोषों से युक्त, प्राणपोषण में निरत । असुर + य; असु + रा य बहुवचन ।

अन्धेन तमसा - अत्यन्त अज्ञान रूपी अन्धकार से। 'तमः' शब्द अज्ञान का बोधक।

आवृताः आच्छादित। आ + वृ (वरणे) + क्त।

प्रेत्य - मरणं प्राप्य, मरण प्राप्तकर। इण् (गतौ) धातु। प्र + इ + ल्यप्।

आत्महनः - आत्मानं ये घनन्ति। आत्मा की व्यापकता को जो स्वीकार नहीं करते।

अनुवादः/भावार्थः-

इस संसार में चर-अचर जो कुछ भी है, वे सभी ईश्वर के द्वारा आच्छादित हैं। इसलिए सभी को ईश्वर की देन समझकर त्यागभाव से उसका उपभोग करो। किसी दूसरे के धन का लालच कभी मत करो ॥1॥

इस लोक में कर्म करते हुए ही सौ वर्ष जीने की इच्छा करें। इस प्रकार मनुष्यत्व का अभिमान रखने वाले तेरे लिए इसके सिवा कोई अन्य मार्ग नहीं है, जिससे तुझे (अशुभ) कर्म का लेप न हो। कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य को सदा सत्कर्म करते हुए ही सौ वर्षों तक जीने की कामना करनी चाहिए ॥2॥

वे असुर सम्बन्धी लोक आत्मा के अदर्शन रूप अज्ञान से आच्छादित है। जो कोई भी आत्मा का हनन करनेवाले हैं वे आत्मघाती जीव मरने के अनन्तर उसी लोक में जाते हैं। कहने का तात्पर्य है कि जो कोई भी आत्महत्या करते हैं या आत्मा के विरुद्ध आचरण करते हैं, वे निश्चित रूप से प्रेत लोक में जाते हैं। यहाँ पर प्रेतलोक कहने का तात्पर्य है ऐसा लोक जो घोर अज्ञानता रुपी अन्धकार से आच्छादित है और अविद्या आदि दोषों से युक्त है। दूसरे शब्दों में इसे नरक भी कह सकते हैं। ऐसे लोक में वही लोग जाते हैं जो आत्म हत्या करते हैं या आत्मा की सत्ता को नहीं मानते हैं। ऐसे अज्ञानी लोग बार-बार जन्म-मरण के चक्कर में पड़कर दुःख भोगते हैं और इसके विपरीत आत्मा की सत्ता को मानने वाले ज्ञानी लोग जन्म-मरण के चक्कर से मुक्त हो जाते हैं। यहाँ पर यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि नरक या प्रेतलोक कहीं और नहीं बल्कि सबकुछ यहीं पर है। जो गहन दुःख में या नीच अर्थात् कीड़े-मकोड़े की योनी में है वही नरक है और जो मानव योनी में जन्म लेकर सत्कर्म करते हुए सुखपूर्वक जीवन यापन कर रहे हैं वही स्वर्ग है ॥3॥

पाठांशाधारिताः प्रश्नाः

1. एकपदेन उत्तरत

क. जगत्सर्वं कीदृशम् अस्ति ?

उत्तराणि- ईशावास्यम्

ख. पदार्थभोगः कथं करणीयः ?

उत्तराणि - त्यागेन

ग. शतं समाः किं कुर्वन् जिजीविषेत् ?

उत्तराणि - कर्म

घ. आत्महनो जनाः कीदृशं लोकं गच्छन्ति ?

उत्तराणि - असुर्यानामलोकं

2. पूर्णवाक्येन उत्तरत

क. जगत्सर्वं केन वास्यम् ?

उत्तराणि – जगत्सर्वं ईशा वास्यम् ।

ख. असुर्या नाम लोकः केन आवृतः ?

उत्तराणि – असुर्या नाम लोकः तमसा आवृतः ।

3. बहुविकल्पीयाः प्रश्नाः

उचितविकल्पं चिनुत-

i. तमसा इति पदे का विभक्तिः ?

क. चतुर्थी

ख. प्रथमा

ग. तृतीया

घ. पञ्चमी

ii. जगत्यां जगत्सर्वं केन भुञ्जीथाः ?

क. लोभेन

ख. हर्षेण

ग. दुःखेन

घ. त्यागेन

iii. 'प्रेत्य' इति पदे कः प्रत्ययः ?

क. ल्यप्

ख. क्त्वा

ग. क्त

घ. टाप्

iv. 'कुर्वन्' इति पदे कः धातुः ?

क. पठ्

ख. गम्

ग. चल्

घ. कृ

श्लोकांशः -

अनेंजदेकं मन॑सो जवीयो नैनंद्वेवा आंप्नुवन्पूर्वमर्षत्

तद्धावतोऽन्यानत्येति मातरिश्वा दधाति ॥4॥

 

अन्धन्तमः प्रविशन्ति येऽविंद्यामुपासते ।

ततो भूयं इव ते तम्रो य उं विद्यायां रताः ॥5॥

 

अ॒न्यदेवाहुर्विद्यया अन्यदाहुरविद्यया।

इतिं शुश्रुम धीराणां ये नुस्तद्विचचक्षिरे ॥6॥

 

विद्यां चाविंद्यां च यस्तदवेदोभयं स ह।

अविंद्यया मृत्युं तीर्त्या विद्ययाऽमृतंमश्नुते ॥7॥

अन्वयः

तत् एकम् अनेजत् मनसः जवीयः ।

देवाः एनत् न आप्नुवन् यस्मात् पूर्वं अर्षत् ।

तत् तिष्ठत् धावतः अन्यान् अत्येति ।

तस्मिन् सति मातरिश्वा अपः दधाति ॥4॥

ये अविद्याम् उपासते ते अन्धन्तमः प्रविशन्ति।

ये उ विद्यायां रताः ते तमः भूयः तमः इव प्रविशन्ति ॥5॥

विद्यया अन्यत् आहुः ।

अविद्यया अन्यत् एव आहुः ।

इति धीराणां शुश्रुम ये नः तत् विचचक्षिरे ॥6॥

यः विद्यां च अविद्यां च तत् उभयं सह वेद

अविद्यया मृत्युं तीर्त्या विद्यया अमृतम् अश्नुते ॥7॥

पदार्थाः/व्याकरणकार्यम्

जवीयः - जव+मतुप्+ईयस्। नपुंसक लिङ्ग, प्रथमा विभक्ति एकवचन। अतिशयेन जववत्। अधिक वेगवाला।

नआप्नुवन् - प्राप्त नहीं किया। आप्लू (व्याप्तौ), लङ् लकार प्रथम पुरुष बहुवचन।

अर्षत् - गच्छत्। गमनशील। ऋषी (गतौ) धातु। शतृ प्रत्यय, नपुंसक लिङ्ग, प्रथमा विभक्ति एकवचन। अथवा ऋ (गतौ) धातु, लेट् लकार।

तिष्ठत् - स्थिर रहने वाला। परिवर्तन रहित। स्था + शतृ, नपुंसक लिङ्ग, प्रथमा विभक्ति एकवचन।

मातरिश्वा - वायु। प्राणवायु। मातरि अन्तरिक्षे श्वयति गच्छति इति मातरिश्वा।

प्रविशन्ति प्रवेश करते हैं। प्र विश् (प्रवेशने) लट् लकार प्रथम पुरुष बहुवचन।

उपासते - उपासना करते हैं। उप + आसते।

आस् (उपवेशने) धातु लट् लकार

प्रथम पुरुष बहुवचन। आस्ते आसाते आसते।

तपोभूय इव उससे अधिक। तीनों पद अव्यय हैं।

रताः - रमण करते हैं। निरत हैं। रम् (क्रीडायां) + क्त। प्रथमा विभक्ति बहुवचन ।

वेद - जानता है। विद् (ज्ञाने) धातु, लट् लकार प्रथम पुरुष एक वचन

तीर्वा तरणकर। तू (प्लवनतरणयोः) + क्त्वा। अव्यय।

अमृतम् - अमरता को। जन्म-मृत्यु के दुःख से रहित अमरत्व को।

अश्नुते - प्राप्त करता है। अश् (भोजने) धातु। भोजनार्थक धातु इस सन्दर्भ में प्राप्ति के अर्थ में है। (अश्नुते प्राप्तिकर्मा; निघण्टुः 2.18)

आहुः - कहते हैं। ब्रूञ् (व्यक्तायां वाचि) लट् लकार प्रथम पुरुष बहुवचन।

शुश्रुम - सुन चुके हैं। श्रु (श्रवणे) धातु, लिट् लकार उत्तम पुरुष बहुवचन ।

विचचक्षिरे स्पष्ट उपदेश दिये थे। वि + चक्षिङ् (आख्याने) धातु, लिट् लकार प्रथम पुरुष बहुवचन। चचक्षे चचक्षाते चचक्षिरे।

विद्या- ज्ञान, अध्यात्म ज्ञान। विद् (ज्ञाने) + क्यप् + टाप्। यहाँ 'अध्यात्म विद्या' के अर्थ में 'विद्या' शब्द का प्रयोग हुआ है। इस चराचर जगत् में सर्वत्र व्याप्त आत्मस्वरूप ईश्वर के ज्ञान को 'अध्यात्मविद्या' की संज्ञा दी गयी है। यह यथार्थ ज्ञान 'विद्या' है। मोक्ष विद्या नाम से भी जाना जाता है।

अविद्या - अध्यात्मेतर विद्या, व्यावहारिक विद्या। अध्यात्म ज्ञान से भिन्न सभी ज्ञान। न + विद्या। 'न' का अर्थ है 'इतर' अथवा 'भिन्न'। अर्थात् 'आत्मविद्या से भिन्न' जो भी ज्ञानराशि है जैसे सृष्टिविज्ञान, यज्ञविद्या, भौतिक विज्ञान, आयुर्विज्ञान, प्रौद्योगिकी, सूचना तन्त्र - ज्ञान आदि अविद्या पद में समाहित हैं।

अनुवादः/भावार्थः

वह आत्मतत्व अपने स्वरूप से विचलित नहीं होनेवाला, एक तथा मन से भी तीव्र गति वाला है। इसे इन्द्रियाँ प्राप्त नहीं कर सकीं क्योंकि यह उनसब से पहले गया हुआ है। वह स्थिर होने पर भी अन्य सभी गतिशीलों का अतिक्रमण कर जाता है। उसके रहते हुए ही वायु (प्राणवायु) समस्त प्राणियों के प्रवृत्ति रूप कर्मों का विभाग करता है। कहने का तात्पर्य है कि वह आत्मतत्व जो अनेजत अर्थात् जिसमें कोई गति नहीं है फिर भी वह मन से भी अधिक तीव्र गति से दौड़ता है और सबसे आगे निकल जाता है। इसे देवता भी प्राप्त नहीं कर सके क्योंकि वह उनसे भी पहले वहाँ पहुँचा हुआ है। यहाँ पर इन्द्रियों को ही देवता कहा गया है क्योंकि इन्द्रियों के द्वारा ही हम सभी प्रकार के ज्ञान को प्राप्त करने में सक्षम हो पाते हैं। इन्द्रियों में भी मन की गति को सबसे तीव्र कहा गया है परन्तु जो आत्मतत्व है उसकी गति तो मन से भी तीव्र है। वह स्वयं स्थिर है फिर भी दूसरे दौड़ने वालों का अतिक्रमण कर जाता है। उस आत्मतत्व के इस शरीर में रहते हुए ही प्राणवायु शरीर की सारी क्रियाओं का सम्पादन करता है। जिस दिन वह आत्मतत्व इस शरीर से निकल जाता है उसके बाद यह शरीर बिल्कुल निस्तेज पड़ जाता है। उसके बाद कोई भी शक्ति इस शरीर की क्रियाओं को करने में सक्षम नहीं हो पाता स्वयं प्राणवायु भी नहीं। वह आत्मतत्व हमारे शरीर में ही दोनों भृकुटियों के मध्य स्थित है। हमें इसे जानना चाहिए। वास्तव में हम स्वयं को शरीर समझते हैं, लेकिन हम शरीर नहीं बल्कि आत्मा हैं जो इस शरीर में रहते हैं। ॥4॥

जो अविद्या की उपासना करते हैं, वे घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं, और जो विद्या में ही रत रहते हैं वे मानो उससे भी अधिक घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं। कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य को केवल व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करके सन्तुष्ट नहीं होना चाहिए और न ही सबकुछ छोड़कर केवल अध्यात्म में डूबे रहना चाहिए, बल्कि कर्म करते हुए अध्यात्म अर्थात् ईश्वर की आराधना भी करनी चाहए। तभी उसका कल्याण सम्भव है ॥5॥

विद्या से जो प्राप्त है वह दूसरा ही है, और अविद्या से जो प्राप्त है वह और ही है, ऐसा ज्ञानी लोग कहते हैं। यह श्रुति ज्ञान हमने ज्ञानियों से प्राप्त किया है, जिन्होंने हमारी बुद्धि के समक्ष उसको प्रकाशित किया । कहने का तात्पर्य है कि विद्या से अलग फल प्राप्त होता है और अविद्या से अलग। विद्या से देवलोक की और अविद्या से पितृलोक की प्राप्ति होती है। ये ज्ञान की बातें हमलोगों ने विद्वानों से सुनी हैं जिन्होंने ऐसी बातों को हमारे समक्ष रखा अर्थात् हमें बताया। ॥6॥

जो विद्या और अविद्या इन दोनों को ही एक साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार कर विद्या से अमरत्व को प्राप्त कर लेता है। कहने का तात्पर्य है कि विद्या अर्थात् अध्यात्म ज्ञान तथा अविद्या अर्थात् कर्म ज्ञान । तो जो भी व्यक्ति इन दोनों को जानता है वह अविद्या से अर्थात् अग्निहोत्र आदि कर्मकाण्ड का अनुष्ठान करके मृत्यु को पार कर जाता है, और विद्या अर्थात् अध्यात्म ज्ञान के द्वारा देवत्व भाव को भी प्राप्त कर लेता है। देवत्व भाव को प्राप्त कर लेना ही अमृतत्व को प्राप्त कर लेना होता है। ||7||

पाठांशाधारिताः प्रश्नाः

1. एकपदेन उत्तरत-

क. मनसोऽपि वेगवान् कः ?

उत्तराणि- आत्मतत्वः

ख. देवाः कं न आप्नुवन् ?

उत्तराणि- आत्मतत्वम्

ग. ऋषयः श्रुतिज्ञानं केभ्यः श्रुतवन्तः ?

उत्तराणि- धीरेभ्यः

घ. केन अमृतम् अश्नुते ?

उत्तराणि- विद्यया

2. पूर्णवाक्येन उत्तरत-

क. विद्यया किं प्राप्नोति ?

उत्तराणि- विद्यया अमृतं प्राप्नोति ।

ख. अविद्यया किं तरति ?

उत्तराणि- अविद्यया मृत्युं तरति ।

3. बहुविकल्पीयाः प्रश्नाः – उचितविकल्पं चिनुत-

i. विद्यया इति पदे का विभक्तिः ?

क. प्रथमा

ख. द्वितीया

ग. तृतीया

घ. चतुर्थी

ii. ' तीर्त्वा' इति पदे कः प्रत्ययः ?

क. क्त्वा

ख. क्त

ग. ल्यप्

घ. तुमुन्

iii. वेद इति पदस्य कः अर्थः ?

क. पठति

ख. जानाति

ग. हसति

घ. वदति

iv. 'आहुः' इति पदस्य अर्थः अस्ति ।

क. वदन्ति

ख. कथयन्ति

ग. हसन्ति

घ. आगच्छन्ति

अभ्यासः

1. संस्कृतभाषया उत्तरं लिखत।

(क) ईशावास्योपनिषद् कस्याः संहितायाः भागः ?

उत्तराणि - ईशावास्योपनिषद् शुक्लयजुर्वेदस्य संहितायाः भागः ।

(ख) जगत्सर्वं कीदृशम् अस्ति ?

उत्तराणि - जगत्सर्वं ईशावास्यम् अस्ति ।

(ग) पदार्थभोगः कथं करणीयः ?

उत्तराणि - पदार्थभोगः त्यागभावेन करणीयः ।

(घ) शतं समाः कथं जिजीविषेत् ?

उत्तराणि - शतं समाः कर्माणि कुर्वन् जिजीविषेत् ।

(ङ) आत्महनो जनाः कीदृशं लोकं गच्छन्ति ?

उत्तराणि - आत्महनो जनाः असूर्या नामकं लोकं गच्छन्ति ।

(च) मनसोऽपि वेगवान् कः ?

उत्तराणि - मनसोऽपि वेगवान् परमात्मा ।

(छ) तिष्ठन्नपि कः धावतः अन्यान् अत्येति?

उत्तराणि - तिष्ठन्नपि आत्मा धावतः अन्यान् अत्येति।

(ज) अन्धन्तमः के प्रविशन्ति ?

उत्तराणि - ये अविद्याम् उपासते ते अन्धन्तमः प्रविशन्ति ।

(झ) धीरेभ्यः ऋषयः किं श्रुतवन्तः ?

उत्तराणि - धीरेभ्यः ऋषयः श्रुतिज्ञानं श्रुतवन्तः ।

(ञ) अविद्यया किं तरति ?

उत्तराणि - अविद्यया मृत्युं तरति ।

(ट) विद्यया किं प्राप्नोति ?

उत्तराणि - विद्यया अमृतं प्राप्नोति ।

2. 'ईशावास्यम्  ................... कस्यस्विद्धनम्' इत्यस्य भावं सरलसंस्कृतभाषया विशदयत।

उत्तर - सर्वम् इंद जगत् परमात्मानाः आच्छादितम् अतः हे नर: ! जगतः पदार्थान् त्यागेन् उपभुञ्जीथा: । कस्यस्वितद् धनस्य लालसा: मा कुरु ।

3. 'अन्धन्तमः प्रविशन्ति................. विद्यायां रताः' इति मन्त्रस्य भावं हिन्दीभाषया आंग्लभाषया वा विशदयत ।

उत्तर - प्रस्तुत मंत्र हमारी संस्कृत पाठ्यपुस्तक शाश्वती भाग 2 के प्रथम पाठ विद्ययाऽमृतमश्नुते से ली गई हैं । यह पाठ ईशावास्योपनिषत् से संकलित हैं। यह उपनिषत् यजुर्वेद की माध्यन्दिन एवं काण्व संहिता का भाग है। इस मंत्र का भाव यह स्पष्ट होता है कि जो लोग अविद्या की उपासना करते है वे घोर अंधकार में प्रवेश करते है, और जो विद्या में ही रमण करते है वे मानो उससे भी अधिक घोर अंधकार में प्रवेश करते है । इससे यह स्पष्ट होता है कि किसी भी मनुष्य को व्यवहारिक ज्ञान और अध्यात्मिक ज्ञान दोनों से परिपूर्ण होना अतिआवश्यक है ।

4. 'विद्यां चाविद्यां च ................... मृतमश्नुते' इति मन्त्रस्य तात्पर्यं स्पष्टयत

उत्तर - जो विद्या और अविद्या इन दोनों को ही एक साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार कर विद्या से अमरत्व को प्राप्त कर लेता है ।

5. रिक्तस्थानानि पूरयत।

(क) इदं सर्वं जगत् ........ ईशावास्यमिदम्........... अस्ति ।

(ख) मा गृधः ........ कस्यस्विदधनम्........... ।

(ग) शतं समाः ...... कर्माणि कुर्वन्............. जिजीविषेत।

(घ) असुर्या नाम लोका ...... अन्धेन............. तमसाऽवृत्ताः ।

(ङ) अविद्योपासकाः ....... अन्धन्तमः............ प्रविशन्ति।

6. अधोलिखितानां सप्रसङ्ग हिन्दीभाषया व्याख्या कार्या।

(क) तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः।

व्याख्या - प्रस्तुत पंक्ति हमारी पाठ्य पुस्तक शाश्वती भाग दो के प्रथम पाठ विद्याऽमृतमश्नुते से ली गई है । प्रस्तुत पाठ ईशावास्योपनिषत् से संकलित है। यह उपनिषत् यजुर्वेद की माध्यन्दिन एवं काण्व संहिता का 40 वॉ अध्याय है जिसमें 18 मंत्र है । इस पंक्ति से यह स्पष्ट होता है कि सभी को ईश्वर की देन समझकर उसका त्याग भाग से भोग करना चाहिए । यह परमात्मा के द्वारा यह संसार व्याप्त है । इस संसार का स्वामी परमात्मा है। संसार मे जो भी पदार्थ है परमात्मा द्वारा ही अच्छादित है ।

(ख) न कर्म लिप्यते नरे।

व्याख्या - प्रसुत पंक्ति हमारी पाठ्य पुस्तक शाश्वती भाग दो के प्रथम पाठ विद्यायाऽमृतमश्नुते से ली गई है । प्रस्तुत पाठ ईशावास्योपनिषत् से संकलित है । यह उपनिषत् यजुर्वेद की माध्यन्दिन एवं काण्व संहिता का 40 वॉ अध्याय है जिसमे 18 मंत्र है । इस पंक्ति से यह स्पष्ट होता है कि अगर मनुष्य अपनी इच्छा शक्ति से अपना कर्म करता है तो वह कर्म के बंधन में लिप्त नहीं रहता है। जिस प्रकार मनुष्य को अपना कर्म करते रहना चाहिए बैठकर अपना समय पार नहीं करना चाहिए ।

(ग) तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति।

व्याख्या - ( भूमिका ) परमात्मा में ही वायु जल को धारण करता है ।

(घ) अविद्यया मृत्युं तीर्त्या विद्ययाऽमृतमश्नुते।

व्याख्या - ( भूमिका ) - मनुष्य अविद्यया के द्वारा मृत्यु को पार करता है और विद्या के द्वारा अमृत को प्राप्त कर लेता है ।

(ङ) एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति ।

व्याख्या - (भूमिका ) जो मनुष्य अपने कत्तव्यों द्वारा अपना कर्म करता है । उसे अनाशक्ति भाव से कर्म करना चाहिए । उस प्रकार जीवन मुक्त हो जाता है । इस इस प्रकार मनुष्यत्व का अभिमान रखने वाले तेरे लिए इसके सिवा और कोई मार्ग नहीं है।

(च) तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः।

व्याख्या - ( भूमिका) - जो कोई भी आत्मा का हनन करते हैं वे आत्मघाती जीव मरने के अनतर उन्हीं लोको में यानी असुर संबंधी लोकों में जाते है । आत्मा के विरुद्ध आचरण करने वाले वह निश्चित रूप से प्रेत लोक में जाते है ।

(छ) अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन् पूर्वमर्षत्।

व्याख्या - ( भूमिका ) - यह जो परमात्मा है वह कम्पन् रहित है इन्द्रिया भी उसे प्राप्त नहीं कर सकता है क्योंकि उन सबसे पहले गाया गया है।

7. उपनिषन्मन्त्रयोः अन्वयं लिखत।

अन्यदेवाहुर्विद्यया अन्यदाहुरविद्यया।

इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे।।

अन्वयं - विद्यया अन्यत् एव आहुः सम्भवात् अविद्यया अन्यत् आहुः असम्भवात् इति शुश्रुम धीराणां येन तत् विचचक्षिरे ।

अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन्पूर्वमर्षत्।

तद्धावतोऽन्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति ।।

अन्वयं - तत् अनेजत् एकं मनसः जवीयः न एनत् आप्नुवन् पूर्वमर्षत् धावतः अन्यान् अत्येति तिष्ठत् तस्मिन् अपः मातरिश्वा दधाति ।

8. प्रकृतिं प्रत्ययं च योजयित्वा पदरचनां कुरुत।

क. त्यज् + क्त = त्यक्तः

ख. कृ + शतृ = कुर्वन्

ग. तत् + तसिल् = ततः

9. प्रकृतिप्रत्ययविभागः क्रियताम्।

क. प्रेत्य = प्र + इण् + ल्यप्

ख. तीर्चा = तृ + क्त्वा

ग. धावतः = धाव् + शतृ

घ. तिष्ठत् = स्था + शतृ

ङ. जवीयः = जव् + ईयसुन् (वेगयुक्तः)

10. अधोलिखितानि पदानि आश्रित्य वाक्यरचनां कुरुत।

क. जगत्यां - जगत्यां विभिन्नधर्मावलम्बिनः निवसन्ति ।

ख. धनम्- स निर्धनाय धनं ददाति ।

ग. भुञ्जीथाः - परेषां धनं मा भुञ्जीथाः ।

घ. शतम्- मह्यं शतं रूप्याकाणि ददातु ।

ङ. कर्माणि- सदा सुकर्माणि कुर्वन्तु ।

च. तमसा - दुर्जनाः अज्ञानरुपी तमसावृत्ताः ।

छ. त्वयि - अहं त्वयि विश्वसिमि ।

ज. अभिगच्छन्ति - धेनवः धेनुनाम् अभिगच्छन्ति ।

झ. प्रविशन्ति - ते गुरोः अनुमातिं विना न प्रविशन्ति ।

ञ. धीराणां - धीराणां मनांसि कदापि न विचलन्ति।

ट. विद्यायाम् - विद्यायां एव सर्वम् ।

ठ. भूयः - किमपि न अस्ति ज्ञानात् भूयः ।

ड. समाः- कर्माणि कुर्वन् शतं समाः जिजीविषेत्।

11. सन्धि सन्धिविच्छेदं वा कुरुत।

(क) ईशावास्यम् = ईश + आवास्यम्

(ख) कुर्वन्नेवेह = कुर्वन + एव + ईह

(ग) जिजीविषेत + शतं = जिजीविषेतछतं

(घ) तत् + धावतः = तदधावतः

(ङ) अनेजत् + एकं = अनेजदकं

(च) आहु: + अविद्यया = आयुर्विद्यया

(छ) अन्यथेतः = अन्यथा + इतः

(ज) तांस्ते = तान + ते

12. अधोलिखितानां समुचितं योजनं कुरुत।

धनम---------- वित्तम्

समाः--------- वर्षाणि

असुर्या: ------तमसाऽऽवृताः

आत्महनः-------- आत्मानं ये घ्नन्ति

मातरिश्वा-------- वायुः

शुश्रुम----------- श्रुतवन्तः स्म

अमृतम् -------- अमरतां

13. अधोलिखितानां पदानां पर्यायपदानि लिखत।

नरे - मनुष्ये

ईश: - परमात्मा

जगत् - संसार:

कर्म - कार्यम्

धीराः - धैर्यशालिनः

विद्या - अध्यात्मज्ञानम्

अविधा - व्यावहारिकज्ञानम्

14. अधोलिखितानां पदानां विलोमपदानि लिखत ।

एकम - अनेकम्

 तिष्ठत् - धावतः

 तमसा - प्रकाशेन

 उभयम् - एकम्

 जवीयःतिष्ठत्

 मृत्युम् - जीवनम्

JCERT/JAC REFERENCE BOOK

विषय सूची

अध्याय-1 विद्ययामृतमश्नुते (विद्या से अमृतत्व की प्राप्ति होती है)

अध्याय-2 रघुकौत्ससंवादः

अध्याय-3 बालकौतुकम्

अध्याय-4 कर्मगौरवम्

अध्याय-5 शुकनासोपदेशः (शुकनास का उपदेश)

अध्याय-6 सूक्तिसुधा

अध्याय-7 विक्रमस्यौदार्यम् (विक्रम की उदारता)

अध्याय-8 भू-विभागाः

अध्याय-9 कार्यं वा साधयेयं, देहं वा पातयेयम् (कार्य सिद्धकरूँगा या देह त्याग दूँगा)

अध्याय-10 दीनबन्धु श्रीनायारः

अध्याय-11 उद्भिज्ज परिषद् (वृक्षों की सभा)

अध्याय-12 किन्तोः कुटिलता (किन्तु शब्द की कुटिलता)

अध्याय-13 योगस्य वैशिष्ट्यम् (योग की विशेषता)

अध्याय-14 कथं शब्दानुशासनम् कर्तव्यम् (शब्दों का अनुशासन(प्रयोग) कैसे करना चाहिए)

JCERT/JAC प्रश्न बैंक - सह - उत्तर पुस्तक (Question Bank-Cum-Answer Book)

विषयानुक्रमणिका

क्रम.

पाठ का नाम

प्रथमः पाठः

विद्ययाऽमृतमश्नुते

द्वितीयः पाठः

रधुकौत्ससंवादः

तृतीयः पाठः

बालकौतुकम्

चतुर्थः पाठः

कर्मगौरवम्

पंचमः पाठः

शुकनासोपदेशः

षष्ठः पाठः

सूक्तिसुधा

सप्तमः पाठः

विक्रमस्यौदार्यम्

अष्टमः पाठः

भू-विभागाः

नवमः पाठः

कार्यं वा साधयेयं देहं वा पातयेयम्

दशमः पाठः

दीनबन्धुः श्रीनायारः

एकादशः पाठः

उद्भिज्ज -परिषद्

द्वादशः पाठः

किन्तोः कुटिलता

त्रयोदशः पाठः

योगस्य वैशिष्टयम्

चतुर्दशः पाठः

कथं शब्दानुशासनं कर्तव्यम्

JAC वार्षिक माध्यमिक परीक्षा, 2023 प्रश्नोत्तर

Sanskrit Solutions शाश्वती भाग 2













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