12. किन्तोः कुटिलता (किन्तु शब्द की कुटिलता)
अधिगम-प्रतिफलानि
1. पाठ्यपुस्तकागतान् गद्यपाठान् अवबुध्य तेषां सारांशं वक्तुं
लेखितुं च समर्थः अस्ति।
(पुस्तक में आए हुए गद्य पाठों को समझकर उनका सारांश बोलने
और लिखने में समर्थ होते हैं।)
2. तदाधारितानां प्रश्नानाम् संस्कृतेन वदति लिखति च । उत्तराणि
(उनपर आधारित प्रश्नों के उत्तर संस्कृत में बोलते और लिखते
हैं।)
3. अपठितगद्यांशं तदाधारितप्रश्नानामुत्तरप्रदाने अस्ति।
पठित्वा सक्षमः
(अपठित गद्यांश को पढ़कर उसपर आधारित प्रश्नों के उत्तर देने
में सक्षम होते हैं।)
पाठपरिचयः-
यह पाठ देवर्षि श्री कलानाथ शास्त्री द्वारा सम्पादित पण्डित
श्री भट्ट मथुरानाथ शास्त्री के निबन्ध संग्रह 'प्रबन्ध-पारिजातः' से संकलित किया गया
है।
इस पाठ में श्री भट्ट जी ने दिखाया है कि जब कभी किसी कथन
के साथ 'किन्तु' लग जाता है, तब बहुधा वह अपने कथन के अच्छे भाव को समाप्त कर उसे दोषपूर्ण
और सम्बोधित व्यक्ति के लिए दुःख पैदा करने वाला, उसके उत्साह का नाशक और शत्रु रूप
बना देता है। ऐसे अवसर विरल होते हैं जहाँ किन्तु सम्बोधित व्यक्ति के लिए सुखदायक
सिद्ध होता है।
लेख की भाषा सरल व सुबोध है, अलंकारों और दीर्घ समासों आदि
का प्रयोग नहीं किया गया है। भाव सुस्पष्ट और सामान्य जीवन में जन साधारण द्वारा अनुभूत
है।
पाठसारांशः
'किन्तोः कुटिलता' नामक पाठ में लेखक ने अपने जीवन में घटित
तीन-चार घटनाओं के अनुभव से 'किन्तु' के षड्यन्त्र को प्रमाणपूर्वक पाठकों के समक्ष
प्रस्तुत किया है। एक बार लेखक का राज्य से प्राप्त हुई भूमि के सम्बन्ध में लम्बे
समय से एक मुकदमा न्यायालय में चल रहा था। जज महोदय ने लेखक के पक्ष में निर्णय सुनाया
और कहा अभियोक्ता की ओर से सभी आवश्यक प्रमाण उपस्थित कर दिए गए। राज्य से प्राप्त
भूमि का दानपत्र भी प्रस्तुत कर दिया गया और न्यायालय को इस बात का पूरा निश्चय हो
गया है कि यह भूमि अभियोक्ता के अधिकार वाली है।" जज महोदय के निर्णय से लेखक
बड़ा प्रसन्न हो रहा था कि भूमि मेरे पास आ ही गई है। तभी जज महोदय ने आगे कहा-
"किन्तु राजस्व विभाग के एक अधिकारी ने इसके विरोध में एक पत्र भेजा है, उस पर
दृष्टिपात करना भी हम अपना कर्तव्य समझते हैं।" किन्तु शब्द के इस भाले ने लेखक
के हृदय को चीरकर रख दिया।
इसी प्रकार की एक अन्य घटना में लेखक बताता है कि एक बार
धर्माधिकारी के पास एक ग़रीब आदमी चीख पुकार करता हुआ कहने लगा कि मेरी नौ वर्ष की
कन्या के विवाह को तीन ही दिन हुए हैं। चतुर्थी कर्म (गौना) न होने से विवाह भी पूरा
नहीं हुआ और उसके पति की मृत्यु हो गई। ऐसी दशा में मैं क्या करूँ। धर्माधिकारी ने
कहा कि यह तो अवश्य ही दयनीय स्थिति है, वर्तमान समय में समाज की भयंकर दशा पर विचार
करते हुए इसके पुनर्विवाह की व्यवस्था दी जानी चाहिए।... किन्तु हम अपने मुँह से कैसे
कहे, हमें प्राचीन मर्यादा की रक्षा भी तो करनी है। यहाँ भी किन्तु ने उस अबोध बालिका
के जीवन को नरक बना दिया।
लेखक ने एक बहुत ही उत्तम पुस्तक संस्कृत में लिखी और एक
साहित्य प्रेमी देश के नेता को समीक्षा के लिए दी। नेता जी ने पुस्तक की प्रशंसा करते
हुए अंतिम वाक्य कहा-"बहुत समय के पश्चात् संस्कृत में इस प्रकार की अद्भुत पुस्तक
लिखी गई है।........ किन्तु ये हिन्दी में लिखी जाती तो उचित होता।" नेताजी के
किन्तु शब्द ने लेखक को मार्मिक पीड़ा दी और वह अपना कान मसलता हुआ घर की ओर निकल गया।
एकबार लेखक बीमार हो गया। एक वैद्य की औषध सेवन से वह स्वस्थ
हो गया। तभी लेखक के पास मित्रों की ओर से भोजन गोष्ठी का निमंत्रण आया। लेखक ने वैद्य
से उसमें सम्मिलित होने के लिए पूछा। उत्तर में वैद्य ने कहा "कोई खास हानि तो
नहीं है... किन्तु गरिष्ठ वस्तुओं के सेवन से परहेज करना।" लेखक प्रीतिभोज में
सम्मिलित हुआ, स्वादिष्ट व्यंजन सामने आए। जैसे ही लेखक ने एक ग्रास गले के नीचे उतारा
वैद्य के किन्तु ने सारा मजा किरकिरा कर दिया।
लेखक ने एक बार देशसेवा करने के लिए घर छोड़ने का निश्चय
किया। रास्ते में बचपन के मास्टर जी मिल गए। उन्होंने पूछा तो बताना पड़ा। मास्टर जी
ने कहा- "बेटा यह सब तो ठीक है....... किन्तु जिस परिवार का भार तुम्हारे सिर
पर है उसे निराधार छोड़कर अकेले कैसे जा सकते हो।" मास्टर जी के किन्तु ने लेखक
के सिर से देशसेवा का भूत उतार दिया।
एक बार लेखक की पत्नी ने भयपूर्वक कहा-"शायद घर में
कोई चोर घुस आया है।" लेखक बड़ी वीरता से अंधेरे में ही लाठी लेकर चोर को पकड़ने
चल पड़ा तभी पत्नी ने कान के पास आकर बुदबुदाया, "अन्धकार में अकेले जा तो रहे
हो....... किन्तु देखना कहीं वह शस्त्र का प्रहार न कर दे।" लेखक की वीरता तुरन्त
गायब हो गई और वह प्राण बचाने के लिए लाठी फेंककर घर के अन्दर छिप गया और वहीं से चीखते
स्वर में बोला- लोगो ! आओ, चोर घुस आया है। पत्नी की इस एक किन्तु ने चोर के थप्पड़ों
से छुड़वाकर लेखक को सुरक्षित घर में भेज दिया था।
विचारने वाली बात यह है कि यह किन्तु ऐसा कल्याणकारी कार्य
भूले भटके ही करता है। खोटा सिक्का तथा नालायक बेटा संकट में कभी. भले ही काम आ जाते
हों, परन्तु अधिकांश में तो समाज इन दोनों पर नाक भौंह सिकोड़ता रहा है और सिकोड़ता
रहेगा। यही दशा 'किन्तु' की है। यह 'किन्तु' जीवन में एक आध बार ही सुखदायी होता है,
संकट से बचाता है और सुखदायी होती है। अधिकांश में तो जिस कथन के साथ 'किन्तु' महाराज
लग जाते हैं। समझिए वह काम खटाई में पड़ गया। कोई न कोई बाधा आ पड़ी और काम बीच में
अटक गया।
पाठांशः 1 -
कुटिलेनामुना 'किन्तु' ना कियत्कालात् क्लेशितोऽस्मि । यत्र
यत्राहं गच्छामि तत्र तत्रैवास्य शत्रुता सम्मुखस्थिता भवति। अस्य 'किन्तोः' कारणात्
कस्मिन्नपि कार्ये सफलता दुर्घटास्ति। बहून् वारान् दृष्टवानस्मि यत्कार्यं सर्वथा
सज्जं सम्पद्यते, सर्वप्रकारैः सिद्धिहस्तगता भवति, यथैव सफलताया मूर्तिः सम्मुखमागच्छन्ती
विलोक्यते तथैव क्रूरोऽयं किन्तुर्मध्ये प्रविश्य सर्वं विनाशयति।
राज्यतो लब्धाया भूमेरभियोगो बहोः कालान्यायालये चलति स्म।
अस्मिन्नभियोगे प्राविवाकमहोदयो निर्णयं श्रावयन् अवोचत् ..'वयंपश्यामोयदभियोक्तुः
पक्षादावश्यकानि सर्वाण्येव प्रमाणान्युपस्थितानि सन्ति। राज्यतो लब्धाया भूमेर्दानपत्रमप्युपस्था
पितमस्ति। न्यायालयेन परिज्ञातं यत् इयं भूमिरभियोक्तुरधि कारभुक्ताऽस्ति........।'
अहं निश्चिन्तताया एकंशान्तं निःश्वासममुचम्। मया सर्वथा
स्थिरीकृतं यद्भाग्य-लक्ष्मीरनुपदमेव मे कन्धरायां विजयमाल्यं प्रददातीति। परं प्राड्विवाकमहोदयः
पुनरग्रे प्रावोचत्- किन्तु राजस्व-विभागस्य प्रधानः किलैकोऽधिकारी एतद्विरोधे एक पत्रं
प्रेषितवानस्ति। एतदुपर्यपि लक्ष्यदानमावश्यकं मन्यामहे।' मम सर्वोऽप्युत्साहः पलायाञ्चक्रे
। 'किन्तु'-कुन्तो ममान्तः-करणं समन्तात् कृन्तति स्म। निजहृदयमवष्टभ्य न्यायं प्रशंसन्
गृहमागमम् ।
दृष्टं मया यदेष 'किन्तुः' दयाधर्मादिष्वपि अनधिकारचेष्टातो
न विरतो भवति। प्रातः कालस्यैव कथास्ति.... धर्मव्यवस्थापकमहोदयस्य समीपे एको दीनः
करुणक्रन्दनपुरःसरं न्यवेदयत्-"महाराज! नववार्षिकी मे कन्या। जातस्य तस्या विवाहस्य
अद्य तृतीयो दिवसः। नाद्यापि चतुर्थीकर्म सम्पन्नं येन विवाहः पूर्णः परिगण्येत। तस्याः
पतिः सहसाऽम्रियत। हा हन्त! तस्या अबोधबालिकाया अग्रे किं भावि? अस्तकर्मसंख्यावृद्धौ
किं ममोच्चकुलमपि सहायकं भविष्यति? आज्ञापयन्तु श्रीमन्तः किं मया साम्प्रतं कर्तव्यम्।"
पण्डितमहोदयो गभीरतममुद्रयाऽवोचत.... "अवश्यमि दं दयास्थानम। वर्तमानकाले समाजस्य
भीषणपरिस्थितेः पर्यालोचन इदमेवोचितं प्रतीयते यत् एवं विधस्थले पुनर्विवाहस्य व्यवस्था
दीयेत.... 'किन्तु' वयं मुखेन कथमेतत् कथयितुं शक्नुमः। प्राचीनमर्यादापि तु रक्षितव्या
स्यात्।"
पदार्थाः/व्याकरणकार्यम् -
क्लेशितः = दुःखी; कष्टापन्नः, क्लेशि+ क्त।
दुर्घटा = असम्भव, कठिन; दुःखेन घटयितुं शक्या, दु घट् + आ।
बहून् वारान् = बहुत बार; अनेकवारम्।
आगच्छन्ती = आती हुई; आयान्ती, आ + गम् + शतृ + डीप ।
अभियोगः = मुकद्दमा; अभि+ युज् + घञ्, पुंल्लिङ्ग, प्रथम पुरुष एकवचन।
अभियोक्तुः = मुद्दई का, मुकद्दमा चलाने वाले का; अभि + युज् + तृ।
ऋकारान्त पुंल्लिङ्ग, पञ्चमी एकवचन।
कुन्तः = भाला।
मुद्रा = मुखाकृति।
प्राबल्यस्य = प्रबलता का, वेगपूर्वक; प्र + बल + ष्यत्र, नपुंसकलिङ्ग,
षष्ठी एकवचन।
निर्वाणा = समाप्त हो चुकी; न्रि वा क्त, स्त्रीलिङ्ग, प्रथमपुरुष,
एकवचन।
इतिश्रीः = समाप्ति।
मार्मिकः = तत्त्वज्ञ, विषयज्ञ; मर्म ठक्, प्रथमपुरुष एकवचन।
कन्धरायाम् = गले में, गर्दन पर।
प्राड्विवाकः = जज, न्यायाधीश।
लक्ष्यदानम् = दृष्टिपात, ध्यानदेना; लक्ष्यस्य दानम्, षष्ठी-तत्पुरुष।
कृन्तति स्म = काट रहा था।
अवष्टभ्य = रोककर; अव स्तम्भ (अवरोध) + ल्यप् ।
विरतः = विरत, पृथक्, अलग; वि रिम् + क्त।
चतुर्थीकर्म = विवाहोपरान्त चौथे दिन किया जाने वाला कर्म, चतुर्थे अहनि
क्रियमाणं कर्म, मध्यमपदलोपी समास।
न्यवेदयत् = निवेदन किया, नि अवेदयत्, विद् (ज्ञाने) लङ् लकार णिजन्त,
प्रथमपुरुष, एकवचन।
नववार्षिकी = नौ वर्ष की आयु वाली।
परिगण्येत = गिना जाए; परि + गण् (संख्याने) + विधिलिङ् प्रथमपुरुष,
एकवचन।
साम्प्रतम् = अभी, वर्तमान में, सम्प्रति एव साम्प्रतम्।
गभीरतमम् = गम्भीरतम; ने पर, समग्र दृष्टिपात करने पर; परि + आ + लोच्
+ ल्युट्, सप्तमी विभक्ति, एकवचन (दर्शन, अंकन)।
अनुवादः/भावार्थः 1
इस कुटिल 'किन्तु' शब्द से मैं कितने ही समय से पीड़ित हूँ।
मैं जहाँ-जहाँ जाता हूँ, वहाँ-वहाँ ही इसकी शत्रुता सामने आ खड़ी होती है। इस 'किन्तु'
के कारण किसी भी कार्य में सफलता अति-कठिन है। मैंने बहुत बार देखा है कि जो काम पूरी
तरह से तैयार होता है, सब प्रकार से सफलता हाथ में आने वाली होती है, जैसे ही सफलता
की मूर्ति सामने आती हुई दिखाई पड़ती है, वैसे ही यह क्रूर 'किन्तु' बीच में घुसकर
सब नष्ट-भ्रष्ट कर देता है।
राज्य से प्राप्त भूमि का अभियोग बहुत समय से न्यायालय में
चल रहा था। इस अभियोग में जज महोदय ने निर्णय सुनाते हुए कहा-'हम देखते हैं कि अभियोक्ता
के पक्ष की ओर से सभी आवश्यक प्रमाण उपस्थित कर दिए गए हैं। राज्य से प्राप्त भूमि
का दानपत्र भी उपस्थित कर दिया गया है। न्यायालय ने अच्छी तरह जान लिया है कि यह भूमि
अभियोक्ता के अधिकार वाली है................ मैंने निश्चिन्तता से एक शान्त श्वास
छोड़ी। मैंने पूरी तरह से निश्चय कर लिया कि भाग्यलक्ष्मी तुरन्त ही मेरे गले में विजयमाला
पहनाने वाली है। परन्तु जज महोदय ने फिर आगे कहा- '.. .... किन्तु राजस्व विभाग के
एक मुख्य अधिकारी ने इसके विरोध में एक पत्र भेजा है। इस पर भी एक नज़र डालना मैं आवश्यक
समझता हूँ।' मेरा सारा उत्साह फुर्र हो गया (गायब हो गया)। किन्तु' रूपी भाला मेरे
चित्त को चारों तरफ से काट रहा था। मैं अपने हृदय को सान्त्वना देकर न्याय की प्रशंसा
करते हुए घर वापस आ गया।
मैंने देखा है कि यह 'किन्तु' दया धर्म आदि में भी अपनी अनधिकार
चेष्टा से रुकता नहीं है। प्रातः काल की ही बात है....... धर्मव्यवस्थापक महोदय के
पास एक गरीब ने करुणक्रन्दन पूर्वक निवेदन किया- "महाराज! नौ वर्ष की मेरी कन्या
है। उसका विवाह हुए तीन दिन बीत गए। आज भी 'चतुर्थी कर्म' पूरा नहीं हुआ, जिससे विवाह
पूर्ण गिना जाए। उसका पति अचानक मर गया। हाय! उस अबोध बालिका का अब आगे क्या होगा?
'अस्तकर्म' की संख्या बढ़ाने में क्या मेरा उच्च कुल भी सहायक होगा? आप आज्ञा कीजिए
कि मुझे क्या करना है?" पण्डित महोदय ने गम्भीरतम मुद्रा में कहा-"यह तो
अवश्य ही दयनीय स्थिति है। वर्तमान समय में समाज की भीषण परिस्थिति को देखते हुए यही
उचित प्रतीत होता है कि ऐसी दशा में पुनर्विवाह की व्यवस्था दे दी जाए (नियम बना दिया
जाए)। 'किन्तु हम अपने मुख से यह बात कैसे कह सकते हैं? प्राचीन मर्यादा की रक्षा भी
तो की जानी चाहिए।"
पाठांशाधारिताः प्रश्नाः-
1. एकपदेन उत्तरत-
क. क्रूरः किन्तुः' मध्ये प्रविश्य किं विनाशयति?
उत्तर- सर्वं
ख. कस्याः पतिः सहसा अम्रियत ?
उत्तर- कन्यायाः
ग. राज्यतो लब्धाया भूमेरभियोगो बहोः कालात्
कुत्र चलति स्म ?
उत्तर- न्यायालये
घ. 'प्राचीनमर्यादापि तु रक्षितव्या स्यात्।'
इति वाक्यं कः अवदत् ?
उत्तर- पण्डितमहोदयः
2. पूर्णवाक्येन उत्तरत-
क. कस्मात् कारणात् कस्मिन्नपि कार्ये सफलता
दुर्घटास्ति ?
उत्तर- किन्तोः कारणात् कस्मिन्नपि कार्ये सफलता दुर्घटास्ति
।
ख. धर्मव्यवस्थापकमहोदयस्य समीपे कः करुणक्रन्दनपुरःसरं
न्यवेदयत् ?
उत्तर- धर्मव्यवस्थापकमहोदयस्य समीपे एको दीनः करुणक्रन्दनपुरःसरं
न्यवेदयत् ।
3. बहुविकल्पीयाः प्रश्नाः
उचितविकल्पं चिनुत-
i. 'न्यवेदयत्' इति पदे कः उपसर्गः ?
क. न्य
ख. नि
ग. नय
घ. नी
ii. वाक्यमध्ये प्रविश्य सर्वं कार्य केन विनाश्यते?
क. स्वामिना
ख. सेवकेन
ग. अधिकारिणा
घ. किन्तुना
iii. राजस्वविभागस्य एकः एतद्विरोधे किं प्रेषितवान्
? अधिकारी
क. पुस्तकं
ख. शुल्कं
ग. पत्रं
घ. आदेशं
iv. 'प्रविश्य' इति पदे कः प्रत्ययः ?
क. ल्यप्
ख. क्त
ग. क्त्वा
घ. तुमुन्
पाठांश: 2-
कुत्रचित् सोऽयं 'किन्तुः' नितान्तमनुतापं जनयति। अनेकवर्षाणां
परिश्रमस्य फलस्वरूपं मन्निर्मितमेकं नवीनसंस्कृतपुस्तकमादाय साहित्यमर्मज्ञस्य एकस्य
देशनेतुः समीपेऽगच्छम्। 'नेतृ'-महोदयः पुस्तकस्य गुणान् सम्यक् परीक्ष्य प्रसन्नः सन्नवोचत्...
“पुस्तकं वास्तव एव अद्भुतं निर्मितमस्ति बहुकालानान्तरं संस्कृते एवंविधा नवीनता दृष्टिगताऽभवत्।...
'किन्तु' मत्सम्मत्यां तदिदं पुस्तकं भवान् संस्कृते न विलिख्य यदि हिन्दीभाषायामलिखिष्यत्
सम्यगभविष्यत्।” तर्हि
गृहं प्रति निवर्तमानोऽहं किन्तु'-कृताया अस्या मर्मवेधकशिक्षाया
उपरि समस्तेऽपि गृहमार्गे कर्णं मर्दयन्नगच्छम्। अनेन 'किन्तु'-ना मह्यं
सा शिक्षा दत्तास्ति यद्यहं सत्पुरुषः
स्यां तर्हि पुनरस्मिन् मार्गे पदनिक्षेपस्य नामापि न गृह्णीयाम्।
कदाचित् कदाचित्त्वयं क्रूरः 'किन्तुः' मुखस्य कवलमप्याच्छिनत्ति।
स्वल्प-दिनानामेव वार्तास्ति। आयुर्वेदमार्तण्डस्य श्रीमतः स्वामिमहाभागस्य औषधिं निषेव्य
अधुनैवाहं नीरोगोऽभवम्। अस्मिन्नेव समये मित्रगोष्ठठ्या निमन्त्रणं प्राप्नवम्। भोजनगोष्ठ्यां
समवेतुं ममापीच्छाशक्तौ प्राबल्यस्य प्रवाहः पूर्णमात्रायां प्रवर्द्धमान आसीत्। अहं
स्वामिमहोदयमप्राक्षम्... 'किमहं तत्र गन्तुं शक्नोमि ।' उत्तरमलभ्यत... 'तादृशी हानिस्तु
नास्ति। 'किन्तु' गरिष्ठवस्तुनो भोजने अवधानमत्यावश्यकम् अधुनापि दौर्बल्यमस्ति।' उत्साहस्य
ज्वाला या पर्व प्रचण्डतमा आसीत् अर्द्धमात्रायां तु तत्रैव निर्वाणाभवत्। अस्तु येन
केनापि प्रकारेण भोजनगोष्ठ्याविशे षाधिवेशनेऽस्मिन् सम्मिलितस्त्वभवमेव। भोजनपीठे अधिकारं
कुर्वन्नेवाहमपश्यं यत् सर्वाङ्गपूर्णा एका भोज्य-व्यञ्जनानां प्रदर्शनी सम्मुखे वर्तत
इति। धीरगम्भीरक्रमेणाहं भोजनकाण्डस्यारम्भमकरवम्। मोदकस्यैकं ग्रासमगृह्णम्। तस्य
स्वादसूत्रेण सन्दानितोऽहं यथैव द्वितीय ग्रासमगृणं तथैव 'स्वामिमहोदयस्य 'किन्तुः'
मम कण्ठनलिकामरुधत्। मुखस्य ग्रासो मुख एवाऽभ्राम्यत् अग्रे गन्तुं नाशक्नोत्। 'किन्तोः'
भीषण विभीषिका प्रत्येकवस्तुनि गरिष्ठतां सम्पाद्य भोजनं तत्रैव समाप्तमकरोत्।' अहं
पदार्थाः/व्याकरणकार्यम् –
नितान्तम् = अत्यधिक।
अनुतापम् = पश्चात्ताप, पछतावा; अनु + - तापम् ।
परीक्ष्य = परीक्षा करके, परि ईक्ष + ल्यप्।
निवर्तमानः = लौटता हुआ; नि + वृत् + शानच।
मर्मवेधकशिक्षायाः = मर्मभेदी शिक्षा
के।
मर्दयन् = मसलता हुआ।
पदनिक्षेपः = कदम रखना; पदयोः निक्षेपः (षष्ठी-तत्पुरुष)
कवलम् = ग्रास।
आच्छिनत्ति = छीन लेता है; आ छिद् + लट्लकार, प्रथमपुरुष, एकवचन।
स्वल्पदिनानाम् एव वार्ता = थोड़े दिनों की ही बात।
'किन्तोः' = सेवन करके; नि+ (सेव् + ल्यप्।
समवेतुम् = सम्मिलित होने के लिए; सम्मिलितुम्, सम् + अव + इ + तुमुन्।
प्रवर्द्धमानः = अत्यधिक बढ़ा हुआ; प्र वृध् + शानच्।
अप्राक्षम् = पूछा।
अवधानम् = सावधानी, परहेज; अव धा + ल्युट > अन।
दौर्बल्यम् = दुर्बलता, कमज़ोरी; दुर्बल + ण्यत्।
अर्द्धमात्रायाम् = आधे मिनट में।
निर्वाणा = शान्त हो गई, बुझ गई।
सम्मिलितस्त्व - भवमेव = सम्मिलितः + तु + अभवम् + एव ।
स्वादसूत्रेण = स्वाद रूपी रस्सी से।
सन्दानितः = बँधा हुआ; सन्दान + इतच् ।
अभ्राम्यत् = घूम गया।
विभीषिका = भय, डर; वि भी णिच् + ण्वुल् + टाप्, षुक्, आगम और इत्व।
अनुवादः/भावार्थः 2-
कहीं पर तो यह 'किन्तु' अत्यधिक दुःख पैदा करता है। अनेक
वर्षों के परिश्रम के फलस्वरूप अपने द्वारा रचित एक नवीन संस्कृत पुस्तक लेकर एक साहित्य-मर्मज्ञ
देश के नेता के समीप पहुँचा। नेता जी ने पुस्तक के गुणों की "पुस्तक तो वास्तव
में अद्भुत लिखी गई है। उचित परीक्षा करके प्रसन्न होते हुए कहा-बहुत समय के पश्चात्
संस्कृत में इस प्रकार की नवीनता देखी गई है।........ किन्तु मेरी सम्मति में आप इस
पुस्तक को संस्कृत में न लिखकर यदि हिन्दी भाषा में लिखते तो बहुत अच्छा होता।"
घर वापस लौटते हुए मैं 'किन्तु' द्वारा दी गई इस मर्मवेधक शिक्षा पर, घर के पूरे रास्ते
कान मसलता हुआ चला गया। इस 'किन्तु' ने मुझे वह शिक्षा दी थी कि यदि मैं सत्पुरुष हूँ
तो फिर इस रास्ते पर पाँव रखने का नाम भी न लूँ।
कभी-कभी तो यह क्रूर किन्तु मुख के कवल (ग्रास) को भी छीन
लेता है। थोड़े ही दिनों की बात है। आयुर्वेद मार्तण्ड श्री स्वामी जी महाराज की औषधि
का सेवन करके अब मैं स्वस्थ हो गया हूँ। इसी समय मित्र मण्डली की ओर से निमन्त्रण प्राप्त
हुआ। भोजनगोष्ठी (पार्टी) में सम्मिलित होने के लिए मेरी इच्छा शक्ति की प्रबलता का
प्रवाह पूरी तरह से बढ़ रहा था। मैंने स्वामी जी महाराज से पूछा-"क्या मैं वहाँ
जा सकता हूँ।" उत्तर मिला "वैसे तो कोई हानि नहीं है, 'किन्तु' गरिष्ठ पदार्थों
के सेवन में बड़ी सावधानी की आवश्यकता है, अभी भी कमजोरी है।" उत्साह की जो ज्वाला
पहले अत्यधिक प्रचण्ड हो रही थी, आधे ही मिनट में वहीं बुझ गई। भोजन के आसन पर अधिकार
जमाते हुए मैंने देखा कि एक सर्वांगपूर्ण भोज्य व्यंजनों की प्रदर्शनी सामने लगी हुई
है। धीर-गम्भीर क्रम से मैंने भोजनकाण्ड की शुरुआत कर दी। मैंने लड्डू का एक ग्रास
लिया। उसके स्वाद सूत्र से बँधे हुए मैंने जैसे ही दूसरा ग्रास ग्रहण किया तभी स्वामी
महोदय की 'किन्तु' से मेरी कण्ठनली ही रुंध गई। मुख का ग्रास मुख में ही घूम गया, आगे
जा ही न सका। 'किन्तु' के भीषण भय ने प्रत्येक वस्तु में गरिष्ठता बता कर भोजन वहीं
समाप्त कर दिया।"
पाठांशाधारिताः प्रश्नाः-
1. एकपदेन उत्तरत-
क. लेखकः कस्य औषधिं निषेव्य नीरोगोऽभवत्
?
उत्तर- आयुर्वेदमार्तण्डस्य
ख. कीदृशभोजने अवधानमत्यावश्यकम् ?
उत्तर- गरिष्ठभोजने
ग. लेखकः कस्यैकं ग्रासमगृह्णत् ?
उत्तर- मोदकस्य
घ. कस्य भीषण विभीषिका प्रत्येकवस्तुनि सम्पाद्य
भोजनं तत्रैव गरिष्ठतां समाप्तमकरोत् ?
उत्तर- 'किन्तोः'
2. पूर्णवाक्येन उत्तरत-
क. कुत्रचित् सोऽयं 'किन्तुः' किं जनयति ?
उत्तर- कुत्रचित् सोऽयं 'किन्तुः' नितान्तमनुतापं जनयति।
ख. लेखकः किम् आदाय साहित्यमर्मज्ञस्य एकस्य
देशनेतुः समीपेऽगच्छत् ?
उत्तर- लेखकः नवीनसंस्कृतपुस्तकमादाय साहित्यमर्मज्ञस्य एकस्य
देशनेतुः समीपेऽगच्छत्।
3. बहुविकल्पीयाः प्रश्नाः-
उचितविकल्पं चिनुत-
i. निषेव्य इति पदे कः प्रत्ययः ?
क. क्त
ख. ल्यप्
ग. क्त्वा
घ. टाप्
ii. अवधानम् इति पदे कः उपसर्गः ?
क. अ
ख. आ
ग. परि
घ. अव
iiii. ----------'किन्तुः' मम कण्ठनलिकामरुधत् ?
क. स्वामिमहोदयस्य
ख. लेखकस्य
ग. मित्रस्य
घ. कस्य
iv. किन्तुना इति पदे का विभक्तिः ?
क. तृतीया
ख. चतुर्थी
ग. पञ्चमी
घ. प्रथमा
पाठांश: 3-
अहं देशसेवां कर्तुं गृहाद् बहिरभवम्। मया निश्चितमासीत्
'एतावन्ति दिनानि स्वोदरसेवायै क्लिष्टोऽभवम्। इदानीं कियन्तं कालं देशसेवायामपि लक्ष्यं
ददामि। यथैवाहं मार्गेऽग्रेसरो भवामि, तथैव मम बाल्याध्यापकमहोदयः सम्मुखोऽभवत्। मास्टरमहोदयेन
प्रस्थानहेतौ पृष्टे सति सम्पूर्णसमाचारनिवेदनं ममाऽऽवश्यकमभूत्। अध्यापकमहोदयः प्रावोचत्...
"तात, सर्वमिदं सम्यक्। किन्तु स्वगृहाभिमुखमपि किञ्चिद्विलोकनीयं भवेत्। येषां
भरणपोषणं भवत्येवायत्तम् तान् किं भवान् निराधारमेव निर्मुच्य स्वैरं गन्तुमर्हेत्।"।
पुनः किमासीत्। अत्रैव परोपकारविचाराणाम् इतिश्रीरभूत्।
'किन्तु' महोदयेन देशसेवायाः सर्वापि विचारपरम्परा परपारे परावर्त्यत गृहाभिमुखं मुखं
कुर्वन् तस्मात् स्थानादेव परावर्तिषि।
मयानुभूतमस्ति यदयं कुटिलः 'किन्तुः' नानादेशेषु नानारूपाणि
सन्धार्य गुप्तं विचरति। यथैव लोकानां कार्यसिद्धेरवसरः समुपतिष्ठते तथैवायं प्रकटीभूय
लोकानां कार्याणि यथावस्थितमवरुणद्धि। अहमेतस्य 'किन्तु' कुठारस्य कठोरतया नितान्तमेव
तान्तोऽस्मि। अहं वाञ्छामि यदेतस्याक्रमणात् सुरक्षितो भवेयम्। परं नायं मां त्यक्तुमिच्छति।
बहवो मार्मिका मामबोधयन् यत् त्वम् एतं सम्मुखमायान्तं दृष्ट्वैव कथं वित्रस्यसि, कुतश्च
एनमपसारयितुं प्रयतसे? किमेनं सर्वथा अहितकारिणमेव निश्चितवानसि ? नेदं सम्यक्। पशुघातकस्य
छुरिकापि पाश-पतितस्य गलबन्धनं छित्त्वा समये प्राणरक्षां कुर्वती दृष्टा।' अहमपि सत्यस्यैकान्ततोऽपलापं
न करिष्यामि। एतस्य कथनस्य सत्यताया मयापि परिचयः कदाचित् कदाचित् प्राप्तोऽस्ति ।
'शब्दैः प्रतीयते यद् गृहे चौरः प्रविष्टोऽस्ति' इति सभयमनुलपन्ती
गृहिणी रात्रौ मामबोधयत्। अहं निजशौर्य प्रकाशयन् महता वीरदर्पण लगुडमात्रमादाय अन्धकार
एव चौरनिग्रहाय प्रचलितोऽभवम्। गृहिणी कर्णसमीप आगत्य शरवदत्... "अन्धकार-ऽस्मिन्
यासि त्वमवश्यम्, 'किन्तु दृश्यताम् स शस्त्रं न प्रहरेत्।" पुनः किमासीत्। मम
वीरदर्पस्य शौर्यस्य च प्रज्ज्वलितं ज्योतिस्तत्रैव निर्वाणमभूत। चौरनिग्रहः कीदृशः,
निजप्राणपरित्राणमेव मे अन्वेषणीयमभवत्। लगुडं प्रक्षिप्य कोष्ठके निलीनोऽभवम्। तत
एव च कम्पित-कण्ठेन चीत्कारमकरवम्-"लोकाः आगच्छत, चौरः प्रविष्टोऽस्ति।"
चौरस्य सुरक्षिते एकेन अमुना 'किन्तु'-ना चपेटाभ्योऽवमुच्य
सौख्यस्य प्रकोष्ठकेऽहं प्रवेशितः। अनेन किन्तुना कस्मिन्नपि संकटसमये कदाचित् किञ्चित्कार्य
कामं कृतं स्यात् परं भूयसा तु अस्माद् भयमेव भवति। अस्य हि सार्वदिकः स्वभाव एव यत्
वार्ता काममुत्तमास्तु अधमा वा परमयं मध्ये प्रविश्य तस्याः कथाया विच्छेदमवश्यं करिष्यति।
एतएव कस्मिन्नपि समये कार्यसाधकत्वेऽपिलोका अस्माद वित्रस्यन्त्येव वैरिणां भा हिताधराऽपि
करवालधारा क्रूराकारा प्रखरप्रकारा एव प्रसिद्धा लोकेषु। विगुणः कार्षापणः, कुत्सितश्च
पुत्रः संकटे कदाचिदुपयुक्तो भवेत् परन्तु जनसमाजे द्वयोरुपर्येव नासा-भूसड्ङ्कोचो
जातो जनिष्यते च। इदमेव कारणं यत् यस्यां वार्तायां 'किन्तुः' उत्पद्यते तां वार्ता
लोका विगुणां गणयन्ति।
पदार्थाः/व्याकरणकार्यम्-
स्वोदरसेवायै = अपनी पेट-पूजा के लिए।
क्लिष्टः = दुःखी।
कियन्तं कालम् = कुछ समय ।
अग्रेसरः = आगे चलने वाला।
आयत्तम् = प्राप्त किया गया, स्वीकार किया गया।
निराधारम् = व्यर्थ ।
निर्मुच्य = छोड़कर; परित्यज्य, निः + मुच् + ल्यप्।
स्वैरम् = स्वेच्छानुसार।
गन्तुम् अर्हेत् = जा सकते हो; 'तुमुन्' प्रत्ययान्त शब्दों के साथ अर्ह
धातु का प्रयोग
शिक् धातु (= सकना) के अर्थ में होता है।
परपारे = परले पार, दूसरी ओर।
परावर्त्यत = लौटा दिया।
सन्धार्य = धारण करके; सम् + धृ + णिच् + ल्यप्।
तान्तः = पीड़ित, परेशान।
वित्रस्यसि = डर रहे हो; वि त्रिस्, लट्लकार, मध्यम पुरुष, एकवचन।
अपसारयितुम् = दूर भागने के लिए; अप + सृ + णिच् + तुमुन् ।
पाशपतितस्य = जाल में फंसे हुए के।
अपलापम् = झुठलाना, सत्य को असत्य और असत्य को सत्य करना।
अनुलपन्ती = कहती हुई; अनु + लप् + शतृ + ङीप् ।
चौरनिग्रहाय = चोर को पकड़ने के लिए; चौरस्य निग्रहाय (चतुर्थी तत्पुरुष)।
परित्राणम् = रक्षण, बचाव, परि त्रैङ् (पालने) + ल्युट् नपुंसकलिङ्ग
प्रथमपुरुष एकवचन।
अन्वेषणीयम् = ढूँढने योग्य, खोजने योग्य; अनु + (इष् + अनीयू प्रत्यय।)
लगुडम् = लाठी, दण्ड।
निलीनः = छुपा हुआ; निली + क्त प्रत्यय।
चपेटाभ्यः = थप्पड़ों से।
अवमुच्य = छुड़ाकर
प्रकोष्ठके = घर में।
कामम् = भले ही।
सार्वदिकः = सर्वदा होने वाला।
भारावताराय = भार उतारने के लिए।
कदाचित् = शायद।
करवालधारः = तलवार की धार।
विगुणः कार्षापणः = खोटा सिक्का।
कुत्सितः = निन्दित, कुत्स + इतच्।
नासा-भ्रूसकोचः = नाक-भौंह सिकोड़ना।
विगुणाम् = गुण रहित, खटाई में पड़ी हुई।
अनुवादः/भावार्थः 3 -
मैं देशसेवा करने के लिए घर से बाहर हुआ। मैंने निश्चय किया
था कि इतने दिनों तक अपनी पेट-पूजा के लिए कष्ट उठाया है। अब कुछ समय देशसेवा में भी
लगाता हूँ। जैसे ही मैं रास्ते में आगे-आगे हुआ, तभी मेरे बचपन के अध्यापक मेरे सामने
आ गए। मास्टर महोदय द्वारा प्रस्थान का कारण पूछने पर मेरे लिए सारा समाचार निवेदन
करना आवश्यक हो गया था। अध्यापक महोदय ने कहा-"पुत्र, यह सब तो ठीक है। 'किन्तु'
अपने घर की तरफ भी थोड़ा ध्यान देना चाहिए। जिनके भरण-पोषण की आपने ज़िम्मेदारी ली
है, क्या आप उन्हें बेसहारा छोड़कर अपनी इच्छानुसार जा सकते हो?" फिर क्या था,
यहीं पर परोपकार के विचार की इतिश्री हो गई। 'किन्तु' जी महाराज ने देशसेवा की सारी
विचार परम्परा को परले पार कर (लौटा) दिया। घर की ओर मुँह करते हुए उसी स्थान से वापस
लौट गया।
मैंने अनुभव किया कि यह कुटिल 'किन्तु' अनेक स्थानों पर अनेक
रूप धारण करके गुप्त रूप से की है। जैसे ही लोगों की कार्य सिद्धि का अवसर समीप होता
है, तभी यह प्रकट होकर लोगों के कार्यों को उसी स्थिति में रोक देता है। मैं इस 'किन्तु'
के कुल्हाड़े की कठोरता से बुरी तरह पीड़ित हूँ। मैं चाहता हूँ कि इसके आक्रमण से बच
जाऊँ। परन्तु यह मुझे छोड़ना ही नहीं चाहता। बहुत से मर्मज्ञों ने मुझे समझाया कि तुम
इसे सामने आता हुआ देखकर ही क्यों डर जाते हो और क्यों इसे दूर करने के लिए यत्नशील
रहते हो ? क्यों इसे सर्वथा अहितकर ही मानते हो? यह ठीक नहीं। पशुघातक की छुरी भी जाल
में बँधे हुए के गले का बन्धन काटकर, अवसर आने पर प्राण रक्षा करती हुई देखी गई है।
मैं भी सच्चाई को पूरी तरह से नहीं झुठलाऊँगा। इस कथन की सत्यता का परिचय मुझे भी कभी
कभी प्राप्त हुआ है।
'आवाज़ों से प्रतीत होता है कि घर में चोर घुस आया है' इस
प्रकार भयपूर्वक कहती हुई मेरी घरवाली ने रात्री में मुझे जगाया। मैं अपनी शूरवीरता
प्रकट करते हुए बड़े घमण्ड से लाठी मात्र लेकर अन्धकार में ही चोर को पकड़ने के लिए
चल पड़ा। पत्नी ने कान के पास आकर धीरे से कहा- "अन्धकार में तुम जाना ज़रूर,
'किन्तु' देखना, कहीं वह शस्त्रप्रहार न कर दे।"
फिर क्या था। मेरे वीरोचित घमण्ड और शूरता की जली हुई ज्योति
वहीं बुझ गई। चोर का पकड़ना कैसा, मैं अपनी प्राणरक्षा ही खोजने लगा। लाठी फेंक कर
कोठे (कमरे) में छिप गया। तभी काँपते हुए स्वर से मैं चीखा-"लोगो। आओ, चोर घुस
आया है।"
इस एक किन्तु ने चोर की चपेटों से छुड़वाकर मुझे सुख के सुरक्षित
कोठे (कमरे) में प्रविष्ट करवा दिया। इस किन्तु ने किसी संकट के समय कभी कोई कार्य
शायद किया हो, परन्तु अधिकतर तो इससे भय ही होता है। इसका सदा-सदा रहने वाला स्वभाव
ही है कि चाहे बात अच्छी हो बुरी परन्तु यह बीच में प्रविष्ट होकर उस बात को अवश्य
ही काट देगा। इसीलिए किसी भी समय कार्य सिद्धि में लोग इससे डरते ही हैं। वैरियों का
भार उतारने के लिए शायद हितकारक तलवार की धार भी क्रूर आकार तथा तीखे रूप वाली ही संसार
में प्रसिद्ध होती है। खोटा सिक्का तथा निन्दित पुत्र संकट में कभी काम भले ही आ जाए,
परन्तु जनसमाज में तो दोनों के ऊपर ही नाक-भौंह सिकोड़ी जाती रही है और आगे भी सिकोड़ी
जाती रहेगी। यही कारण है कि जिस किसी बात में 'किन्तु' लग लग जाता है, उस बात को लोग
खटाई में पड़ी हुई बात ही समझते हैं।
पाठांशाधारिताः प्रश्नाः-
1. एकपदेन उत्तरत-
क. 'किन्तु स्वगृहाभिमुखमपि किञ्चिद्विलोकनीयं
भवेत्। इति वाक्यं कोऽवदत् ?
उत्तर - अध्यापकमहोदयः
ख. केषाम् इतिश्रीरभूत् ?
उत्तर - परोपकारविचाराणाम्
ग. लेखकः किमर्थं गृहाद् बहिरभवत् ?
उत्तर - देशसेवार्थं
घ. 'परं नायं मां त्यक्तुमिच्छति।' अत्र 'अयं'
इति पदं कस्य कृते प्रयुक्तम् ?
उत्तर - किन्तोः
2. पूर्णवाक्येन उत्तरत-
क. लेखकः किम् इच्छति ?
उत्तर - लेखकः किन्तोः क्रमणात् सुरक्षितभवितुम् इच्छति ।
ख. देशसेवार्थं गच्छन् काले लेखकस्य सम्मुखः
कोऽभवत् ?
उत्तर - देशसेवार्थं गच्छन् काले लेखकस्य सम्मुखः बाल्याध्यापकमहोदयोऽभवत्।
3. बहुविकल्पीयाः प्रश्नाः-
उचितविकल्पं चिनुत-
(i) 'अन्वेषणीयम्' इति पदे कः प्रत्ययः ?
क. तव्यत्
ख. अनीयू
ग. क्त
घ. ईयम्
(ii) 'अवमुच्य' इति पदे कः उपसर्गः ?
क. अव
ख. अ
ग. आ
घ. आव
(iii) 'स्वोदरसेवायै' अत्र का विभक्तिः ?
क. पञ्चमी
ख. चतुर्थी
ग. प्रथम
घ. द्वितीया
(vi) गृहिणी कस्य कर्णसमीपे आगत्य शनैः अवदत्
?
क. पत्युः
ख. अधिकारिणः
ग. किन्तोः
घ. मन्त्रिणः।
अभ्यासः-
प्रश्न 1. संस्कृतेन उत्तरं दीयताम् -
(क) भूमिविषयके अभियोगे 'किन्तु'-ना का बाधा उपस्थापिता ?
उत्तर
: 'राजस्वविभागस्य प्रधानः अधिकारी तद्-विरोधे एकं पत्रं प्रेषितवान्'- इति बाधा किन्तुना
उपस्थापिता।
(ख) वाक्यमध्ये प्रविश्य सर्वं कार्यं केन विनाश्यते ?
उत्तर
: वाक्यमध्ये प्रविश्य सर्वं कार्यं किन्तुना विनाश्यते।
(ग) लेखकस्य देशसेवायाः विचारस्य कथम् इतिश्रीरभूत् ?
उत्तर
: 'किन्तु किञ्चित् स्वगृहाभिमुखं विलोकनीयम्' इति अध्यापकवचनेन लेखकस्य देशसेवायाः
विचारस्य इति श्रीः अभूत्।
(घ) नेतृमहोदयः पुस्तकप्रशंसां कुर्वन् 'किन्तु' प्रयोगेन कं परामर्शम्
अददात् ?
उत्तर
: नेतृमहोदयः परामर्शम् अददात्- "यदि इदं पुस्तकं हिन्दीभाषायाम् अलिखिष्यत् तर्हि
सम्यग् अभविष्यत्।"
(ङ) भोजन-गोष्ठीस्थले कीदृशी प्रदर्शनी समायोजिता आसीत् ?
उत्तर
: भोजन-गोष्ठीस्थले भोज्य-व्यञ्जनानां प्रदर्शनी
समायोजिता आसीत्।
(च) भोजनगोष्ठ्यां लेखकस्य कण्ठनलिकां कः अरुधत् ?
उत्तर
: लेखकमहोदयस्य कण्ठनलिकां स्वामिमहोदयस्य 'किन्तुः' अरुधत्।
(छ) धर्मव्यवस्थापक: विधवायाः पुनर्विवाहमुचितं मन्यमानोऽपि व्यवस्थां
किमर्थं न ददौ ?
उत्तर
: यतः धर्मव्यवस्थापक: प्राचीनमर्यादाम् अपि
रक्षितुम् इच्छति स्म, अतः सः पुनर्विवाहस्य व्यवस्थां न ददौ।
(ज) गृहिणी पत्युः कर्णसमीपे आगत्य शनैः किम् अवदत् ?
उत्तर
: सा अवदत्-“अन्धकारेऽस्मिन् त्वम् अवश्यं
यासि, 'किन्तु' दृश्यताम्, स शस्त्रं न प्रहरेत्।"
(झ) लोकाः किन्तु-युक्तां वार्ता केन कारणेन विगुणां गणयन्ति ?
उत्तर
: यतः किन्तुयुक्तायाः वार्तायाः सिद्धौ किन्तुना बाधा अवश्यमेव स्थाप्यते, अतः लोकाः
किन्तुयुक्तां वार्ता विगुणां गणयन्ति।
(ब) किन्तोः सार्वदिकः प्रभाव: कः ?
उत्तर
: एषः किन्तुः सर्वासां वार्तानां मध्ये प्रविश्य वार्तायाः विच्छेदम् अवश्यं करोति
इत्येव किन्तोः सार्वदिकः प्रभावः ।
प्रश्न 2. उपयुक्तशब्दान् चित्वा रिक्तस्थानानां पूर्तिः विधेया -
(दुर्घटा, अवधानम्, सन्दानितः, स्वामिमहोदयम्, संस्कृते, विवाहस्य,
शान्तम्, पलायांचक्रे, कालात्, संकटे)
(क)
अहं स्वामिमहोदयम् अप्राक्षं किमहं तत्र गन्तुं
शक्नोमि ।
(ख)
अस्य 'किन्तोः' कारणात् कस्मिन्नपि कार्य सफलता दुर्घटा
अस्ति।
(ग)
तस्य स्वादसूत्रेण सन्दानितः अहं यथैव द्वितीयं
ग्रासमगृह्णम्, तथैव 'किन्तुः' मम कण्ठनलिकामरुधत्।
(घ)
गरिष्ठवस्तुनो भोजने अवधानम् अत्यावश्यकम्।।
(ङ)
विगुणः कार्षापणः कुत्सितश्च पुत्रः संकटे कदाचिदुपयुक्तो
भवेत्।
(च)
राज्यतो लब्धाया भूमेरभियोगो बहो: कालात् न्यायालये
चलति स्म।
(छ)
मम सर्वोऽप्युत्साहः पलायाञ्चक्रे।
(ज)
अहं निश्चिन्तताया एकं शान्तं नि:श्वासममुचम्।
(झ)
जातस्य तस्या विवाहस्य अद्य तृतीयो दिवसः।
(ञ)
बहुकालानन्तरं संस्कृते एवं विधा नवीनता दृष्टिगताऽभवत्
।
प्रश्न 3. अधोलिखितैः उचितक्रियापदैः रिक्तस्थानानि पूरयत -
परिगण्येत, परावर्तिषि, आच्छिनत्ति, मन्यामहे, दीयेत, अलिखिष्यत्।
(क)
प्रधानः एकं पत्रं प्रेषितवानस्ति। एतदुपर्यपि लक्ष्यदानमावश्यकं मन्यामहे।
(ख)
गृहाभिमुखं मुखं कुर्वन् तस्मात् स्थानादेव परावर्तिषि।
(ग)
यदि हिन्दीभाषायाम् अलिखिष्यत् तर्हि सम्यगभविष्यत्
।
(घ)
इदमेवोचितं प्रतीयते यत् एवंविधस्थले पुनर्विवाहस्य व्यवस्था दीयेत।
(ङ)
कदाचित् कदाचित्त्वयं क्रूरः 'किन्तुः' मुखस्य कवलमपि आच्छिनत्ति।
(च)
नाद्यापि चतुर्थीकर्म सम्पन्नं येन विवाह: पूर्णः परिगण्येत।
प्रश्न 4. सन्धिच्छेदं कुरुत -
(क) तत्रैवास्य = तत्र + एव + अस्य
(ख) सर्वाण्येव = सर्वाणि + एव
(ग) मन्निर्मितमेकम् = मत् + निर्मितम्
+ एकम्
(घ) किलैकोऽधिकारी = किल + एकः + अधिकारी
(ङ) द्वयोरुपर्येव = द्वयोः + उपरि + एव।
प्रश्न 5. प्रकृति-प्रत्ययविभागः क्रियताम् -
(क) निर्मूच्च = निर् + मुच् + क्त्वा +
ल्यप्
(ख) आदाय = आ + दा + क्त्वा + ल्यप्
(ग) प्रविष्टः = प्र + विश् + क्त (पुंल्लिङ्गम्,
प्रथमा-एकवचनम्)
(घ) आगत्य = आ + गम् + क्त्वा + ल्यप्
(ङ) परिज्ञातम् = परि + ज्ञा + क्त (नपुंसकलिङ्गम्
प्रथमा-एकवचनम्)
प्रश्न 6. अधोलिखितेषु पदेषु विभक्तिं वचनं च दर्शयत -
(क) कार्ये - कार्य-सप्तमी विभक्तिः, एकवचनम्
(ख) अभियोक्तुः - अभियोक्त--पञ्चमी/षष्ठी
विभक्तिः, एकवचनम्
(ग) बालिकायाः - बालिका–पञ्चमी/षष्ठी विभक्तिः,
एकवचनम्
(घ) न्यायालयेन - न्यायालय - तृतीया विभक्तिः,
एकवचनम्
(ङ) नेतुः - नेतृ-सप्तमी विभक्तिः, एकवचनम्
(च) शक्तौ - शक्ति - सप्तमी विभक्तिः,
एकवचनम्
(छ) औषधिम् - औषधि - द्वितीया विभक्तिः,
एकवचनम्
प्रश्न 7. स्वरचितवाक्येषु अधोलिखितपदानां प्रयोगं कुरुत -
किन्तु, गन्तुम्, मह्यम्, विभीषिका, भरणपोषणम्, दृष्ट्वा
(क) किन्तु - अहं धावनप्रतियोगितायां
सर्वतो अग्रे आसम्, किन्तु सहसा मम पादस्खलनम् अभवत्।
(ख) गन्तुम् - अहं विद्यालयं गन्तुम् इच्छामि।
(ग) मह्यम् - मयं पठनम् अतीव रोचते।
(घ) विभीषिका - परीक्षायाः विभीषिका मनः
उद्वेलयति।
(ङ) भरणपोषणम् - परिवारस्य भरणपोषणं तु सर्वेषां
कर्तव्यम् अस्ति।
(च) दृष्ट्वा - अधः दृष्ट्वा कथं न गच्छसि
प्रश्न 8. विलोमशब्दान् लिखत -
(क) विगुणः - सगुणः
(ख) शौर्यम् - अशौर्यम्
(ग) सुरक्षितः - विनष्टः
(घ) शत्रुता - मित्रता
(ङ) धीरः - अधीरः
(च) भयम् - निर्भयम्
JCERT/JAC REFERENCE BOOK
विषय सूची
अध्याय-1 विद्ययामृतमश्नुते (विद्या से अमृतत्व की प्राप्ति होती है)
अध्याय-5 शुकनासोपदेशः (शुकनास का उपदेश)
अध्याय-7 विक्रमस्यौदार्यम् (विक्रम की उदारता)
अध्याय-9 कार्यं वा साधयेयं, देहं वा पातयेयम् (कार्य सिद्धकरूँगा या देह त्याग दूँगा)
अध्याय-11 उद्भिज्ज परिषद् (वृक्षों की सभा)
अध्याय-12 किन्तोः कुटिलता (किन्तु शब्द की कुटिलता)
अध्याय-13 योगस्य वैशिष्ट्यम् (योग की विशेषता)
अध्याय-14 कथं शब्दानुशासनम् कर्तव्यम् (शब्दों का अनुशासन(प्रयोग) कैसे करना चाहिए)
JCERT/JAC प्रश्न बैंक - सह - उत्तर पुस्तक (Question Bank-Cum-Answer Book)
विषयानुक्रमणिका
क्रम. | पाठ का नाम |
प्रथमः पाठः | |
द्वितीयः पाठः | |
तृतीयः पाठः | |
चतुर्थः पाठः | |
पंचमः पाठः | |
षष्ठः पाठः | |
सप्तमः पाठः | |
अष्टमः पाठः | |
नवमः पाठः | |
दशमः पाठः | |
एकादशः पाठः | |
द्वादशः पाठः | |
त्रयोदशः पाठः | |
चतुर्दशः पाठः | |