12th Sanskrit 4. कर्मगौरवम् JCERT/JAC Reference Book

12th Sanskrit 4. कर्मगौरवम् JCERT/JAC Reference Book

12th Sanskrit 4. कर्मगौरवम् JCERT/JAC Reference Book

4. कर्मगौरवम्

अधिगम-प्रतिफलानि

1. संस्कृत श्लोकान् उचितबलाघात पूर्वकम् छन्दोऽनुगुणम् उच्चारयति।

(श्लोकों का छन्दानुसार उचित लय के साथ सस्वर वाचन करते हैं)

2. श्लोके प्रयुक्तानां सन्धियुक्तपदानां विच्छेदं करोति।

(श्लोक में प्रयुक्त सन्धियुक्तपदों का विच्छेद करते हैं।)

3. श्लोकान्वयं कर्तुं समर्थः अस्ति।

(श्लोकों का अन्वय करने में समर्थ होते हैं।)

पाठपरिचय-

प्रस्तुत पाठ, श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय एवम् तृतीया अध्यायों से संग्रहीत है। श्रीमद्भगवद्गीता वह विश्वप्रसिद्ध ग्रन्थरत्न है, जिसमें श्रीकृष्ण ने विषादग्रस्त अर्जुन को कर्तव्य का उपदेश देकर धर्मरक्षार्थ युद्ध के लिए प्रेरित किया था। कर्म में कुशलता को ही योग बताया गया है।

अतः सभी को निःसंगभाव से सदा सर्वहित के कार्यों में संलग्न रहना चाहिए। यही उपनिषदों का भी सन्देश है- कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः ।

पद्यांश:-

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।

तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ।। 1 ।।

नियतं कुरू कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।

शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः ||2 ||

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यम् पुरुषोऽश्नुते ।

न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥3।

अन्वयः 1- बुद्धियुक्तः सुकृतदुष्कृते उभे इह जहाति, तस्मात् योगाय युज्यस्व, कर्मसु कौशलं योगः।

अन्वयः 2- त्वं नियतं कर्म कुरु; हि अकर्मणः कर्म ज्यायः। अकर्मणः ते शरीरयात्रा अपि च न प्रसिद्ध्येत्।

अन्वयः 3- पुरुषः, न कर्मणाम् अनारम्भात् नैष्कर्म्यम् अश्नुते, न च संन्यसनात् एव सिद्धिम् समधिगच्छति।

पदार्थाः / व्याकरणम् -

बुद्धियुक्तः = समत्वबुद्धि से युक्त पुरुष।

सुकृत-दुष्कृते = पुण्य और पाप।

उभे = दोनों को।

इह = इस लोक में।

जहाति = छोड़ देता है, अर्थात् उनमें लिप्त नहीं होता। हा + लट्, प्रथम पुरुष एकवचन।

तस्मात् = इसलिए।

योगाय = समत्वबुद्धि योग के लिए।

युज्यस्व = प्रयत्न कर। युज् (आत्मनेपद) + लोट्, मध्यम पुरुष, एकवचन।

कर्मसु = कर्मों में।

कौशलम् = चतुरता है, अर्थात् कर्मबन्धन से छूटने का मार्ग है।

नियतम् = निश्चित, क्षत्रिय के लिए उचित।

कुरु = करो, कृ लोट्, मध्यम पुरुष, एकवचन।

ज्यायः = प्रशस्य + ईयसुन्, नपुं०; प्रथमा

एकवचन = श्रेष्ठ।

हि अकर्मणः = क्योंकि कर्म न करने से।

शरीरयात्रा अपि = लौकिक व्यवहार भी, शरीर निर्वाह भी।

प्रसिद्ध्येदकर्मणः = प्रसिद्ध्येत् + अकर्मणः, कर्म न करने से सिद्ध नहीं होगा।

अनारम्भात् = आरम्भ किए बिना, आरम्भ न करने से।

नैष्कर्म्यम् = निष्कर्मता को।

अश्नुते = प्राप्त करता है। इअश् + लट्, प्रथम पुरुष, एकवचन।

संन्यसनात् = छोड़ देने से।

सिद्धिम् = सफलता को।

समधिगच्छति = प्राप्त करता है। सम् + अधि + गम् + लट्, प्रथम पुरुष, एकवचन।

सरलार्थः 1- हे अर्जुन ! बुद्धियुक्त अर्थात् समत्व बुद्धि को प्राप्त मनुष्य, इस संसार में पुण्य और पाप दोनों प्रकार के कर्मों में आसक्ति को छोड़ देता है। इसलिए तू समत्व योग के लिए प्रयत्न कर। कर्मों में कुशलता का नाम ही योग (अनासक्ति-निष्काम योग) है।

अर्थात् - जिसे अनासक्ति योग की बुद्धि प्राप्त हो गई, वह पुण्य के बाधक दुष्कृत और सुकृत इन दोनों को छोड़ देता है। शास्त्रीय गुत्थी को सुलझाने का नाम योग नहीं है, किन्तु जीवन में लोकहित के लिए, कौन-सा कर्म त्याज्य है, तथा कौन-सा स्वीकार्य है-इस धर्म के तत्त्व निरूपण में कुशलता का नाम ही योग है। यह बुद्धियोग अनासक्ति के बिना प्राप्त नहीं हो सकता।

सरलार्थः 2 - हे अर्जुन। तुम अपने क्षत्रिय धर्म के अनुसार क्षत्रियोचित कर्म करो, क्योंकि कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठ है। बिना कर्म किए हुए तुम्हारे लिए, शरीर निर्वाह (लौकिक-व्यवहार) भी सिद्ध नहीं होगा।

अर्थात् - भाव यह है कि तुम्हें अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। शस्त्र छोड़कर, निठल्ला होकर बैठने से काम नहीं चलेगा। तुम्हारे लिए युद्ध करना ही श्रेष्ठ है।

सरलार्थः 3- मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किए बिना निष्कर्मता को प्राप्त करता है, और न कर्मों को त्यागने मात्र से ही भगवत् साक्षात्कार रूप सफलता को प्राप्त करता है।

अर्थात् - भाव यह है कि कर्मों का बिल्कुल ही न करना अथवा मध्य में ही छोड़ देना, दोनों ही स्थितियाँ उचित नहीं हैं; अपितु कर्तव्य कर्म अनासक्ति भाव से अवश्य करना चाहिए।

पाठांशाधारिताः प्रश्नाः -

1. एकपदेन उत्तरत-

क. बुद्धियुक्तो जनाः किं त्यजति?

उत्तर – सुकृतदुष्कृते

ख. योगः केषु कौशलम्?

उत्तर – कर्मसु

ग. श्रेष्ठः कर्मः कः अस्ति?

उत्तर – नियतकर्मः

घ. संसारे के जहाति?

उत्तर – बुद्धियुक्तो

2. पूर्णवाक्येन उत्तरत-

क. शरीरयात्रापि किं सिद्धयते ?

उत्तर – शरीरयात्रापि नियतकर्मेण सिद्धयते।

ख. पुरुषः केन नैष्कर्म्य प्राप्नोति ?

उत्तर – पुरुषः कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यम्-र्म्यम् प्राप्नोति ।

3. बहुविकल्पीयाः प्रश्नाः-

i. 'बुद्धि' इति पदस्य पर्यायपदं लिखत।

क-प्राज्ञः

ख-मतः

ग-शुद्धः

घ-विशुद्धः

ii. 'कर्मसु' इति पदे का विभक्ति?

क-प्रथमा

ख-सप्तमी

ग. द्वितीया

घ. चतुर्थी

iii. 'सुकृतदुष्कृते' इति पदे कः समासः ?

क. कर्मधारय

ख. द्विगु

ग. तत्पुरूष

घ. बहुब्रीहि

iv. 'जहातीह' इति पदे सन्धि विच्छेदः अस्ति।

क. जहाति + इह

ख. जह + तीह

ग. जहा + तीह

घ. जहाः + तीह

पाठांश:-

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् । कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ।। 4 ||

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर । असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः ।। 5 ||

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः । लोकस‌ङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ।।6 ।।

अन्वयः 4- हि कश्चित् जातु क्षणम् अपि अकर्मकृत् न तिष्ठति, हि सर्वः प्रकृतिजैः गुणैः अवशः कर्म कार्यते।

अन्वयः 5- तस्मात् असक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर, हि असक्तः पुरुषः कर्म आचरन् परम् आप्नोति।

अन्वयः 6- जनक-आदयः कर्मणा एव संसिद्धिम् आस्थिताः, हि लोकसङ्ग्रहम् सम्पश्यन् अपि कर्तुम् एव अर्हसि।

पदार्थाः / व्याकरणम् -

हि = क्योंकि, निःसन्देह, निश्चय से।

कश्चित् = कोई भी।

जातु = कभी भी।

क्षणम् = थोड़ी देर के लिए।

अकर्मकृत् = बिना कर्म किए।

सर्वः = सब लोग।

अवशः = पराधीन होकर।

कार्यते = करते हैं-कराया जाता है।

असक्तः = अनासक्त होकर, न सक्तः। सङ्ग् + क्त, न सक्तः असक्त। नञ् तत्पुरुष।

सततम् = निरन्तर, लगातार।

समाचर = भली-भाँति करो। सम् + आ + चर, लोट् मध्यम-पुरुष, एकवचन।

संसिद्धिम् = परम सफलता को।

आस्थिताः = प्राप्त हुए थे। आस्था क्त पुंल्लिंग प्रथमा, बहुवचन ।

लोकसङ्ग्रहम् = लोक कल्याण को।

अर्हसि = योग्य हो। अर्ह लट् प्रथम पुरुष, एकवचन।

सरलार्थः 4- हे अर्जुन कोई भी पुरुष कभी भी थोड़ी देर के लिए भी, बिना कर्म किए नहीं रहता है। निःसंदेह सब लोग प्रकृति से उत्पन्न हुए (स्वभाव अनुसार) गुणों द्वारा विवश होकर कर्म करते हैं।

अर्थात्- कर्म करना मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। जब मनुष्य शरीर से कर्म नहीं करता, आलसी पड़ा रहता है, तब भी वह मन से तो कार्य करता ही है। अतः पूर्ण चेतना से निष्काम कर्म ही करना चाहिए। आलस कभी नहीं रहना चाहिए।

सरलार्थः 5- इसलिए, हे अर्जुन तुम अनासक्त होकर निरन्तर अपने कर्तव्य कर्म का अच्छी प्रकार भली-भाँति आचरण करो। क्योंकि अनासक्त पुरुष कर्म करता हुआ, परमात्मा को प्राप्त करता है।

अर्थात् - निष्काम कर्मयोग ही परमात्मा की प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन है।

सरलार्थः 6- राजा जनक आदि राजर्षि भी (अनासक्त होकर) कर्म द्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए हैं। निश्चय ही तुम भी लोक कल्याण को देखते हुए ही कर्म करने के योग्य हो।

अर्थात् - जैसे जनक आदि ने अनासक्ति भाव से अपने कर्तव्यों का पालन किया, ऐसे ही तुम्हें भी आचरण करना चाहिए। इससे तुम्हें सफलता प्राप्त होगी।

पाठांशाधारिताः प्रश्नाः -

1. एकपदेन उत्तरत-

क. कैः गुणैः प्राणिनः कर्म कुर्वन्ति?

उत्तर- प्रकृतिजैर्गुणैः

ख. कश्चित्क्षणमपि कः न तिष्ठत्यकर्मकृत ?

उत्तर- मानवः

ग. आसक्तिरहितः पुरुषः किं प्राप्नोति?

उत्तर- परमतत्व

घ. कर्मणैव कः संसिद्धिमास्थिताः ?

उत्तर- जनकादयः

2. पूर्णवाक्येन उत्तरत-

क. तस्मादसक्तः किं समाचर?

उत्तर- तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचरः।

ख. महापुरुषाः परमसिद्धि केन प्रकारेण प्राप्ताः?

उत्तर- महापुरुषाः परमसिद्धिं संसिद्धिमास्थिताः।

3. बहुविकल्पीयाः प्रश्नाः-

i. 'गुणैः' इति पदे का विभक्ति?

क-प्रथमा

ख-द्वितीया

ग-तृतीया

घ-चतुर्थी

ii. 'अर्हसि' इति पदे कः लकारः ?

क. लट्

ख. लोट्

ग. लृट्

घ. लङ्

iii. 'कर्तुम्' इति पदे कः प्रत्ययः?

क. तुमुन्

ख. ल्यप्

ग. शतृ

घ. अनीयू

iv. 'आदि' इति पदे कः विलोमपदः अस्ति?

क. अनादि

ख. आसक्त

ग. सक्तः

घ. अन्तः

पाठांश:-

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ।। 7 11

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् । जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् ॥ 8 ||

यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः । समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ॥ 9 ||

अन्वयः 7- श्रेष्ठः यत् आचरति, इतरः जनः तत् तत् एव (आचरति), सः यत् प्रमाणं कुरुते, लोकः तत् अनुवर्तते।

अन्वयः 8- विद्वान् कर्मसङगिनाम् अज्ञानां बुद्धिभेदं न जनयेत्, (किन्तु) युक्तः सर्वकर्माणि समाचरन् जोषयेत्।

अन्वयः 9- यादृच्छा लाभ संतुष्टः विमत्सरः द्वन्द्वातीतः सिद्धौ च असिद्धौ समः कृत्वा अपि न निवध्यते।

पदार्थाः / व्याकरणम् -

आचरति = आचरण करता है। आ चर् + लट् प्रथम पुरुष, एकवचन।

प्रमाणम् = प्रमाण को, आदर्श को।

इतरः = अन्य लोग, सब लोग।

अनुवर्तते = अनुसरण करता है। अनु + वृत् + लट् प्रथम पुरुष + एकवचन।

बुद्धिभेदम् = कर्तव्यबोध में अश्रद्धा।

विद्वान् = ज्ञानवान् पुरुष।

कर्मसङ्गिनाम् = कर्म में आसक्त लोगों के

अज्ञानाम् = अज्ञानियों के।

युक्तः = अपने कर्तव्य कर्म में स्थित, निष्काम कर्म में लगा हुआ।

समाचरन् = भली-भाँति आचरण करता हुआ।

जोषयेत् = कराए, करवाना चाहिए, लगाना चाहिए। जुष् + णिच् + विधिलिङ् प्रथम पुरुष, एकवचन।

यादृच्छालाभ = बिना इच्छा के अपने आप में जो कुछ मिल जाए।

द्वन्द्वातीत = हर्ष शोक आदि द्वन्द्वोंसे रहित।

विमत्सर = ईर्ष्या से रहित।

कृत्वा = करके (कृ धातु + क्त्वा प्रत्यय)

न निवध्यते = नहीं बंधता है।

सरलार्थः 7- श्रेष्ठ व्यक्ति जो आचरण करता है। दूसरा व्यक्ति भी उसी कर्म को करता है, अर्थात् वैसा ही अनुसरण दूसरे लोग भी करते हैं। वह व्यक्ति, जो कुछ प्रमाण कर देता है लोग भी उसके अनुसार आचरण करते हैं।

भावार्थ:- भाव यह है कि प्रजाजन, श्रेष्ठ व्यक्तियों के आचरण को आदर्श मानकर, उसके अनुसार ही व्यवहार करते हैं। अतः तुम्हें भी श्रेष्ठ लोगों के आचरण का आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए।

सरलार्थः 8- विद्वान् मनुष्य को चाहिए कि वह कर्म में आसक्ति रखने वाले अज्ञानी मनुष्यों में, कर्मों के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न न करे किन्तु स्वयं धर्मरूप कर्म में स्थित होकर सब कर्तव्य कर्मों का पालन भली-भाँति करता हुआ, दूसरों से भी वैसा ही कराए।

भावार्थ:- भाव यह है कि मनुष्य को, कर्तव्य कर्म करके समाज के प्रति एक उदाहरण बनना चाहिए। वह स्वयं भी विधिपूर्वक कर्तव्य कर्म करे तथा दूसरों को भी वैसे ही कर्म में प्रवृत्त करे।

सरलार्थः 9- जो आपने आप प्राप्त हो जाए उसमें संतुष्ट रहता है और जो ईर्ष्या से रहित हर्ष-शोक आदि द्वन्द्वों से रहित तथा सिद्धि व असिद्धि में सम रहता है वह कर्म करते हुए उसमें नहीं बंधता है।

भावार्थ:- कहने का तात्पर्य यह है की जितना लाभ हो गया है उसी में संतुष्ट रहने वाला व्यक्ति द्वन्द्व से परे रहने वाला, ईर्ष्या से रहित, सफलता और असफलता में समान भाव रखने वाला कभी भी कर्मों के बंधन में नहीं बंधता है।

पाठांशाधारिताः प्रश्नाः -

1. एकपदेन उत्तरत-

क. श्रेष्ठजनाः किं कुर्वन्ति ?

उत्तर- प्रमाणं

ख. कः प्रमाणः कुरुते ?

उत्तर- श्रेष्ठजनः

ग. लोकः केन अनुवर्तते ?

उत्तर- श्रेष्ठजनस्य

घ. समः सिद्धावसिद्धौ च कः अस्ति ?

उत्तर- विद्वांषः

2. पूर्णवाक्येन उत्तरत-

क. कः पुरुषः न निबध्यते ?

उत्तर- द्वन्द्वातीतो विमत्सरः सिद्धावसिद्धौ समः च कृत्वापि न निबध्यते।

ख. कर्मसङ्गिनां किं भवेत् ?

उत्तर- न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानं कर्मसङ्गिनां भवेत्।

3. बहुविकल्पीयाः प्रश्नाः-

i. 'कुरुते' इति आत्मनेपदे कः लकारः ?

क. लट्

ग. लोट्

ख. लृट्

घ. लङ्

ii. 'निरग्निः' इति पदे कः समासः ?

क. तत्पुरुष

ख. अव्यीभाव

ग. कर्मधारय

घ. द्विगु

iii. 'कृत्वा' इति पदे कः प्रत्ययः?

क. ल्यप्

ख. शतृ

ग. क्त्वा

घ. तव्यत्

iv. 'कर्मणः' इति पदस्य कः विलोमपदः ?

क. अकर्मणः

ख. कर्मः

ग. सतकर्मः

घ. दुष्कर्मः

पाठांश:-

सुखदुःखसमे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ। ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ||10 ||

अनाश्रितः कर्मफलं कार्य कर्म करोति यः। स सन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ।। 11 ||

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत। कुर्याद्विद्वांस्तथाऽसक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् ।।12 ||

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ।।13 ||

अन्वयः 10- जयाजयौ लाभालाभौ सुखदुःखे समे कृत्वा, ततः युद्धाय युज्यस्व एवं पापम् न अवाप्यसि।

अन्वयः 11- यः कर्मफलं अनाश्रितः कार्यं कर्म करोति स सन्यासी च योगी च निरग्निःन च अक्रियः न।

अन्वयः 12- भारत कर्मणि सक्ताः अविद्वांसः यथा कुर्वन्ति असक्तः विद्वान लोकसंग्रहम् चिकीर्षुः तथा कुर्यात्।

अन्वयः 13- ते कर्मणि एव अधिकारः फलेषु कदाचन मा कर्मफलहेतुः मा भूः ते अकर्मणि सङ्गः मा अस्तु।

पदार्थाः / व्याकरणम् -

युज्यस्व = तैयार हो जा।

अवाप्यसि = प्राप्त होगा।

अनाश्रितः = आश्रय ना लेकर।

निरग्नि = अग्नि का त्याग करने वाला (सन्यासी)।

अक्रियः = क्रियाओं का त्याग करने वाला (योगी)।

सक्ताः = आसक्त हुए।

अविद्वांसः = अज्ञानी जन।

असक्तः = आसक्ति रहित।

चिकीर्षुः = करने का इच्छुक।

कर्मणि = करना करने में।

कदाचन = कभी।

कर्मफलहेतुः = कर्मों के फल का हेतु।

मा भूः = मत हो।

अकर्मणि = कर्म ना करने में।

सङ्गः = आसक्ति ।

सरलार्थः 10- भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि जय-पराजय लाभ-हानि और सुख-दुःख को समान समझकर फिर युद्ध के लिए तैयार हो जा, इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को प्राप्त नहीं होगा।

अर्थात्ः भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, हे अर्जुन। सुख और दुख में समान रहकर, लाभ और हानि, जय और पराजय इन सब को समान समझकर जो तुम युद्ध के लिए प्रयत्न करते हो, इस प्रकार से तुझे पाप की प्राप्ति नहीं होगी अर्थात् इस प्रकार युद्ध करने से तुम्हें पुण्य की प्राप्ति होगी।

सरलार्थ: 11- जो पुरुष कर्म फल का आश्रय न लेकर कर्तव्य कर्म करता है वही सन्यासी तथा योगी है और केवल अग्नि का त्याग करने वाला सन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है।

अर्थात्ः- जो मनुष्य कर्मफल के आश्रित न रह कर करने योग्य कर्मों को करता है वही सन्यासी और वही योगी है वही अग्निहोत्री है और वही श्रेष्ठ कर्म करने वाला है।

सरलार्थ: 12- हे भारतवंशी अर्जुन कर्म में आसक्त हुए अज्ञानी जन जिस प्रकार कर्म करते हैं आसक्ति रहित विद्वान भी लोक संग्रह करने के इच्छुक उसी प्रकार कर्म करें।

अर्थात्:- हे भारत वंशज ! (अर्जुन) काम में लिप्त हुए अज्ञानी जन जिस लगन निष्ठा एवं तन्मयता से कर्म करते हैं उसी लगन निष्ठा एवं तन्मयता से निर्लिप्त भाव पूर्वक मानव कल्याण करने की इच्छा वाले ज्ञानी पुरुष (साधक) निष्काम कर्म करें।

सरलार्थ: 13- तेरा कर्म करने में ही अधिकार है उसके फलों में कभी नहीं इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु भी मत बन तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो।

अर्थात्:- श्री कृष्ण कहते हैं- हे मनुष्य ! तू कर्म करने के लिए स्वतंत्र है कभी भी फल के लिए उसका तुम्हारा अधिकार नहीं है कर्म के फल की प्राप्ति के लिए ही तू काम मत कर और तुम्हारा अकर्म के प्रति भी आसक्ति न हो इसलिए तुम श्रेष्ठ कर्म को करो।

पाठांशाधारिताः प्रश्नाः

1. एकपदेन उत्तरत-

क. अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कः करोति ?

उत्तर- सन्यासी

ख. कः कर्मासक्तः कार्यं करोति ?

उत्तर- अविद्वानः

ग. कः श्रेष्ठकर्म करोति ?

उत्तर- विद्वानः

घ. अग्निहोत्री कः अस्ति ?

उत्तर- सन्यासी

2. पूर्णवाक्येन उत्तरत-

क. कः अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति?

उत्तर- सन्यासी योगी च अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति।

ख. विद्वान् किं कुर्यात् ?

उत्तर- असक्तः कर्मण्यविद्वान् कुर्यात्।

3. बहुविकल्पीयाः प्रश्नाः-

i. 'सक्तः' इति पदे कः विलोम पदः ?

क. अनासक्तः

ख. आसक्तः

ग. आसक्तिः

घ. अनासक्तिः

ii. 'फलेषु' इति पदे का विभक्ति ?

क. प्रथमा

ख. सप्तमी

ग. तृतीया

घ. पञ्चमी

iii. 'कर्मणि + एव + अधिकारः' इति पदस्य सन्धि कुरुत।

क. कर्मणेअधिकारः

ख. कर्मणिअधिकारः

ग. कर्मणेअधिकारः

घ. कर्मण्येवाधिकारः

iv. 'सततं' इति पदस्य पर्यायपदं लिखत।

क. अनारतं

ख. अनिरतं

ग. असततं

घ. असक्तः

अभ्यासः-

प्रश्न 1. संस्कृतभाषया उत्तरत-

(1) संस्कृतभाषया उत्तरत ।

(क) अयं पाठः कस्मात् ग्रन्थात् सङ्कलितः ?

उत्तर - अयं पाठः 'भगवद्गीता' इति ग्रन्थात् सङ्कलितः।

(ख) अकर्मण: किं ज्यायः ?

उत्तर - अकर्मणः कर्मं ज्यायः ।

(ग) जनकादयः केम सिद्धिम् आस्थिता: ?

उत्तर - जनकादयः कर्मणा एव सिद्धिम् आस्थिताः।

(घ) लोकं कम् अनुवर्तते ?

उत्तर - यद् यद् आचरति श्रेष्ठः लोकः तत् अनुवर्तते

(ङ) बुद्धियुक्तः अस्मिन् संसारे के जहाति ?

उत्तर - बुद्धियुक्त: अस्मिन् संसारे सुकृतदुष्कृते जहाति ।

(च) केषाम् अनारम्भात् पुरुषः नैष्कर्म्यं प्राप्नोति ?

उत्तर - कर्मणाम् अनारम्भात् पुरुषः नैष्कर्म्य न प्राप्नोति ।

(छ) क: सन्यासी कथ्यते ?

उत्तर - यः कर्मफलं अनाश्रितः कार्य कर्म करोति सः संन्यासी कथ्यते।

(ज) लोकं संग्रहम् चिर्कीषु विद्वान् किं कुर्यात् ?

उत्तर - लोकसंग्रहम् चिकीर्षु विद्वान् असक्तः कर्म कुर्यात्।

(झ) जनः किं कृत्वापि न निबध्यते ?

उत्तर - सिद्धावसिद्धौ च समः कृत्वा जनः न निबध्यते।

(2) नियतं कुरु कर्म त्वं ...... प्रसिद्धयेदकर्मणः अस्य श्लोकस्य भावार्थ कुरुत।

उत्तर - भावार्थ - अपना नियत कर्म करो , क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना ही श्रेष्ठ हैं । कर्म के बिना तो शरीर - निर्वाह भी नहीं हो सकता ।

(3) 'यद्यदाचरति ......... लोकस्तदनुवर्तते ' अस्य श्लोकस्य अन्वयं लिखत।

उत्तर - अन्वयः - श्रेस्ठः यद्यदाचरति सतदेवेतरो जनः स यत्प्रमाणं लोकस्तदनुवर्तते कुरुते ।

(4) अधोलिखितानां शब्दानां विलोमान् पाठात् चित्वा लिखत् ।

यथा - वशः ------------ अवशः

क . बुद्धिहीनः ---------- बुद्धियुक्त

ख . दुष्कृतम्----------- सुकृतम्

ग . अकौशलम्--------- कौशलम्

घ . न्यूनः---------------- ज्यायः

ङ . कर्मणः------------- अकर्मणः

 च . दुर्गणैः--------------- गुणैः

 छ . कदाचित्---------- सतत

 ज . निकृष्ट------------- श्रेष्ठः

(5) अ - अधोलिखतेषु पदेषु सन्धिविच्छेदं कुरुत ।

जहातीह - जहाति + इह

ह्यकर्मणः - हि + अकर्मणः

शरीरयात्रापि - शरीरयात्रा + अपि

पुरुषोऽश्नुते - पुरुषः + अश्नुते

तिष्ठत्यकर्मकृत् - तिष्ठति + अकर्मकृत्

प्रकृतिजैगुणैः - प्रकृतिजै: + गुणैः

कर्मणैव - कर्मणा + एव

लोकस्तदनुवर्त्तते - लोकः + तत् + अनु + वर्त्तते

जनभयेदज्ञानम् - जनयेत् + अज्ञानाम्

(आ) अधोलिखितक्रियापदानां लकार पुरुषवचन निर्देशं कुरुत ।

उत्तरम् :

जहाति - हा धातु, लट्लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन।

युज्यस्व - युज् धातु, लोट्लकार, मध्यम पुरुष, एकवचन।

कुरु - कृ धातु, लोट्लकार, मध्यम पुरुष, एकवचन।

अश्नुते - अश् धातु, लट्लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन।

समधिगच्छति - सम् + अधिगम् धातु, लट्लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन।

तिष्ठति - स्था धातु, लट्लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन।

आप्नोति - आप धातु, लट्लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन।

अनुवर्तते - अनु वृत् धातु, लट्लकार, प्रथम पुरुष, एकवचन।

जनयेत् - जिन् धातु, विधिलिङ्, प्रथम पुरुष, एकवचन।

जोषयेत् - जुष् धातु, विधिलिङ्, प्रथम पुरुष, एकवचन।

प्रश्न 6. अधोलिखतवाक्येषु रेखाकितपदानां विभक्तीनां निर्देशं कुरुत -

(क) योगः कर्मसु कौशलम्।

उत्तरम् : कर्मसु - कर्मन्, सप्तमी-विभक्तिः, बहुवचनम्।

(ख) जीवने नियतं कर्म कुरु।

उत्तरम् : कर्म - कर्मन्, प्रथमा-विभक्तिः, एकवचनम्।

(ग) कर्मणा एव जनकादयः संसिद्धिम आस्थिताः।

उत्तरम् : कर्मणा - कर्मन्, तृतीया-विभक्तिः, एकवचनम्।

(घ) अकर्मणः कर्म ज्यायः।

उत्तरम् : अकर्मणः - अकर्मन्, पञ्चमी-विभक्तिः, एकवचनम्।

(ङ) कर्मणाम् अनारम्भात् पुरुषः नैष्कर्म्य न अश्नुते।

उत्तरम् : कर्मणाम् - कर्मन्, षष्ठी-विभक्तिः, बहुवचनम्।

(7) प्रदत्तमञ्जूषाया: समुचितपदानां चयनं कृत्वा अधोदत्तशब्दानां प्रत्येकपदस्य त्रीणि समानार्थकपदानि लिखन्तु ।

अनारतम्, मनीषा, गात्रम, दुष्कर्म, प्राज्ञः, कलुषम्, शेमुषी, अविरतम्, कोविदः, काय:, मतिः, पातकम्, देहः, मनीषी, अश्रान्तम्

क . विद्वान् - प्राज्ञः    कोविदः    मनीष

ख . शरीरम् - गात्रम्  काय       देह:       

ग . बुद्धि: - मनीषी    शेमुषी     मतिः 

घ. सततम् - अनारतम्  अकितम्  अश्रान्तम्

ङ . दुष्कृतम् - दुष्कर्म  कलुषम्  पातकम्

प्रश्न 8. कर्म आश्रित्य संस्कृभाषायां पञ्च वाक्यानि लिखत -

उत्तरम्ः

(i) अकर्मणः कर्म ज्यायः भवति।

(ii) अकर्मणः शरीरयात्रा अपि न सम्भवति ।

(iii) अतः असक्तः सततं कर्तव्यं कर्म समाचरेत्।

(iv) जनकादयः कर्मणा एव संसिद्धिम् आस्थिताः।

(v) योगः कर्मसु कौशलम् ।

(9) पाठे प्रयुक्तस्य धन्दसः नाम लिखत ।

उत्तर - पाठे अनुष्टुप छन्दः प्रयुक्तः ।

JCERT/JAC REFERENCE BOOK

विषय सूची

अध्याय-1 विद्ययामृतमश्नुते (विद्या से अमृतत्व की प्राप्ति होती है)

अध्याय-2 रघुकौत्ससंवादः

अध्याय-3 बालकौतुकम्

अध्याय-4 कर्मगौरवम्

अध्याय-5 शुकनासोपदेशः (शुकनास का उपदेश)

अध्याय-6 सूक्तिसुधा

अध्याय-7 विक्रमस्यौदार्यम् (विक्रम की उदारता)

अध्याय-8 भू-विभागाः

अध्याय-9 कार्यं वा साधयेयं, देहं वा पातयेयम् (कार्य सिद्धकरूँगा या देह त्याग दूँगा)

अध्याय-10 दीनबन्धु श्रीनायारः

अध्याय-11 उद्भिज्ज परिषद् (वृक्षों की सभा)

अध्याय-12 किन्तोः कुटिलता (किन्तु शब्द की कुटिलता)

अध्याय-13 योगस्य वैशिष्ट्यम् (योग की विशेषता)

अध्याय-14 कथं शब्दानुशासनम् कर्तव्यम् (शब्दों का अनुशासन(प्रयोग) कैसे करना चाहिए)

JCERT/JAC प्रश्न बैंक - सह - उत्तर पुस्तक (Question Bank-Cum-Answer Book)

विषयानुक्रमणिका

क्रम.

पाठ का नाम

प्रथमः पाठः

विद्ययाऽमृतमश्नुते

द्वितीयः पाठः

रधुकौत्ससंवादः

तृतीयः पाठः

बालकौतुकम्

चतुर्थः पाठः

कर्मगौरवम्

पंचमः पाठः

शुकनासोपदेशः

षष्ठः पाठः

सूक्तिसुधा

सप्तमः पाठः

विक्रमस्यौदार्यम्

अष्टमः पाठः

भू-विभागाः

नवमः पाठः

कार्यं वा साधयेयं देहं वा पातयेयम्

दशमः पाठः

दीनबन्धुः श्रीनायारः

एकादशः पाठः

उद्भिज्ज -परिषद्

द्वादशः पाठः

किन्तोः कुटिलता

त्रयोदशः पाठः

योगस्य वैशिष्टयम्

चतुर्दशः पाठः

कथं शब्दानुशासनं कर्तव्यम्

JAC वार्षिक माध्यमिक परीक्षा, 2023 प्रश्नोत्तर

Sanskrit Solutions शाश्वती भाग 2













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